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________________ उक्त प्रकारसे उसका समाधान होता । दोनोंका रूप भिन्न ही होता । अर्थात् प्रस्तुत सूत्र द्रव्यस्त्रियोंके ही ५ गुणस्थानोंका विधायक हो और उनकी मुक्तिका निषेधक हो तो "अस्मादेव आर्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निवृत्तिः सिद्धयेत्" ऐसी शंका कदापि न उठती। बल्कि " द्रव्यस्त्रीणां निर्वृत्तिः कथं न भवति" इस प्रकार से शंका उठती और उस दशा में "अस्मादेव आर्षाद्" और "निर्वृत्तिः सिद्धयेत्" ये शब्द भूल करके भी प्रयुक्त न किये जाते । अतः इन शब्दोंके प्रयोगसे भी स्पष्ट है कि ९३वें सूत्र में द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका विधान न होकर भावस्त्रियोंके १४ गुणस्थानोंका विधान है और वह 'संजद' पदके प्रयोग द्वारा अभिहित है । और यह तो माना ही नहीं जा सकता है कि उपर्युक्त टीकामें चउदह गुणस्थानोंका जो उल्लेख है वह किसी दूसरे प्रकरण के सूत्र से सम्बद्ध है क्योंकि "अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृतिः सिद्धयेत्" शब्दों द्वारा उसका संबंध प्रकृत सूत्र से ही है, यह सुदृढ़ है । शंकाकार फिर शंका उठाता कि भाववेद तो वादरकपाय ( नौवें गुणस्थान) से आगे नहीं है और इसलिये भावस्त्री मनुष्यगति में चउदह गुणस्थान सम्भव नहीं हैं ? इसका वे उत्तर देते हैं कि "नहीं, यहाँ योगमार्गणा सम्बन्धी गतिप्रकरण में वेदकी प्रधानता नहीं है किन्तु गतिकी प्रधानता है और वह शीघ्र नष्ट नहीं होती । मनुष्यगतिकर्मका उदय तथा सत्त्व चउदहवें गुणस्थान तक रहता है और इसलिये उसकी अपेक्षा भावस्त्रीके चउदहगुणस्थान उपपन्न हैं । इसपर पुनः शंका उठी कि "वेदविशिष्ट मनुष्यगति में वे चउदह गुणस्थान सम्भव नहीं हैं ? इसका समाधान किया कि नहीं, वेदरूप विशेषण यद्यपि ( नौवें गुणस्थान में ) नष्ट हो जाता है फिर भी उपचारसे उक्त व्यपदेशको धारण करने वाली मनुष्यगति में, जो चउदहवें गुणस्थान तक रहती है, चउदह गुणस्थानोंका सत्त्व विरुद्ध नहीं है ।" इस सब शंका-समाधानसे स्पष्ट हो जाता है कि टीका द्वारा ९३ वे सूत्र में 'संजद' पदका निःसंदेह समर्थन है और वह भावस्त्रो मनुष्यकी अपेक्षासे हैं द्रव्यस्त्री मनुष्यकी अपेक्षासे नहीं । पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने टीकागत उल्लिखित स्थलका कुछ आशय और दिया है लेकिन वे यहाँ भी स्खलित हुए हैं । आप लिखते हैं- " अब आगेको टीकाका आशय समझ लीजिए, आगे यह शंका उठाई है कि इसी आगमसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध होती है क्या ? उत्तरमें टीकाकार आचार्य वीरसेन कहते हैं कि नहीं, इसी आगमसे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं हो सकती है ।" यहाँ पंडितजी ने "इसी आगमसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध होती है क्या ? और इसी आगमसे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्री मोक्ष सिद्ध नहीं हो सकती है ।" लिखा है वह " अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृत्तिः सिद्धयेत् इति चेत् न, सवासस्त्वादप्रत्याख्यानगुणस्थितानां संयमानुपत्तेः ।" इन वाक्योंका आशय कैसे निकला ? इनका सीधा आशय तो यह है कि इसी आगमसूत्र से द्रव्यस्त्रियोंके मोक्ष सिद्ध हो जाये ? इसका उत्तर दिया गया कि 'नहीं, क्योंकि द्रव्यस्त्रियां सवस्त्र होनेके कारण पंचम अप्रत्याख्यान गुणस्थान में स्थित हैं और इस लिये उनके संयम नहीं बन सकता है । परन्तु पंडितजीने 'क्या' तथा 'इसी आगमसे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्री मोक्ष नहीं हो सकता है ।' शब्दोंको जोड़कर शंका और उसका उत्तर दोनों सर्वथा बदल दिये हैं । टीकाके उन दोनों वाक्योंमें न तो ऐसी शंका है कि इसी आगमसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध होती है क्या ?' और न उसका ऐसा उत्तर है कि 'इसी आगमसे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं हो सकती है ।' यदि इसी आगमसूत्र से द्रव्यस्त्रीके मोक्षका निषेध प्रतिपादित होता तो वीरसेन स्वामी 'सवासस्त्वात्' हेतु नहीं देते, उसी आगमसूत्रको ही प्रस्तुत करते, जैसाकि सम्यग्दृष्टिकी स्त्रियों में उत्पत्तिनिषेधमें उन्होंने आगमको ही प्रस्तुत किया है, हेतुको नहीं । अतएव पंडितजीका यह लिखना भी सर्वथा भ्रमपूर्ण है कि 'यदि ९३ वें सूत्र में 'संजद' पद होता तो आचार्य वीरसेन इस प्रकार टीका नहीं करते Jain Education International - ३७२ - - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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