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________________ श्री मुनिसुव्रत स्वामीकी प्रतिमा प्रकट हुई, जिसका अतिशय लोकमें खूब फैला और तबसे यह तीर्थ प्रसिद्धि में आया । उक्त विद्वानोंके लेखों और वर्णनोंसे स्पष्ट है कि विक्रमकी १३वीं १४वीं शताब्दी में यह एक बड़ा तीर्थ माना जाता था । और वि० की १८वीं शताब्दी तक प्रसिद्ध रहा तथा यात्री उसकी वन्दनाके लिये जाते रहे हैं। विशेषके लिए इसी ग्रन्थ में प्रकाशित द्रव्य संग्रहकी प्रस्तावना दृष्टव्य है । मेवाड़देशस्थ नागफणी - मल्लिजिनेश्वर मदनकीर्ति पद्य ३३ के उल्लेखसे मालूम होता है कि मेवाड़के नागफणी गाँव में खेतको जोतते हुए एक आदमीको शिला मिली । उस शिलापर श्रीमल्लिजिनेश्वरकी प्रतिमा प्रकट हुई और वहाँ जिनमन्दिर बनवाया गया। जान पड़ता है कि उसी समयसे यह स्थान एक पवित्र क्षेत्रके रूपमें प्रसिद्धिमें आया और तीर्थं माना जाने लगा । यद्यपि यह तीर्थ कबसे प्रारम्भ हुआ, यह बतलाना कठिन हैं फिर भी यह कहा जा कि वह सात सौ साढ़े सातसौ वर्ष प्राचीन तो अवश्य है । मकता मालवदेशस्थ मङ्गलपुर-अभिनन्दन जिन मालवाके मङ्गलपुरके श्रीअभिनन्दनजिनके जिस अतिशय और प्रभावका उल्लेख मदनकीर्तिने पद्य ३४ में किया है उसका जिनप्रभसूरिने भी अपने 'विविधतीर्थकल्प' गत 'अवन्तिदेशस्थ - अभिनन्दन देवकल्प' नाम कल्प ( पृ० ५७ ) में निर्देश किया है और साथ में एक कथा भी दी है । उस कथाका सार यह है कि म्लेच्छोंने अभिनन्दनदेवकी मूर्तिको तोड़ दिया लेकिन वह जुड़ गई और एक बड़ा अतिशय प्रगट हुआ । सम्भवत: इसी अतिशयके कारण प्राकृतनिर्वाणकाण्ड' और अपभ्रंश निर्वाणभक्ति में उसकी वन्दना की गई है । अतएव इन सब उल्लेखादिकोंसे ज्ञात होता है कि मालवाके मङ्गलपुर के अभिनन्दनदेवकी महिमा लोकविश्रुत रही है और वह एक पवित्र अतिशयतीर्थ रहा है । यह तीर्थं भी आठ सौ वर्षसे कम प्राचीन नहीं है । इस तरह इस संक्षिप्त स्थानपर हमने कुछ ज्ञात अतिशय तीर्थों और सातिशय जिनबिम्बोंका कुछ परिचय देनेका प्रयत्न किया है । जिन अतिशय तीर्थों अथवा सातिशय जिनबिम्बोंका हमें परिचय मालूम नहीं हो सका उन्हें यहाँ छोड़ दिया गया है । आशा है पुरातत्त्वप्रेमी उन्हें खोजकर उनके स्थानादिका परि चय देगें । १. 'पासं तह अहिणंदण णायहि मंगलाउरे वंदे ।' -गाथा २० । २. ' मंगलवुरि वंदउं जगपयासु, अहिणंदणु जिणु गुणगणणिवासु ।' | ३५९ = Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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