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________________ इस रचनाके अलावा मदनकीतिकी और भी रचनाएँ है या नहीं, यह अज्ञात है। वर विजयपुर नरेश कुन्तिभोजके पूर्वजोंके सम्बन्धमें लिखा गया उनका परिचयग्रन्थ रहा है, जिसका उल्लेक राजशेखरने मदनकीर्ति-प्रबन्धमें किया है । शासनचतुस्त्रिशिकामें उल्लिखित तीर्थ और उनका कुछ परिचय इस शासनचतुस्थिशिकामें जिन तीर्थो एवं सातिशय दिगम्बर जिनबिम्बोंका उल्लेख हआ है वे २६ हैं। उनमें ८ तो सिद्ध-तीर्थ हैं और १८ अतिशयतीर्थ हैं । उनका यहाँ कुछ परिचय दिया जाता है । सिद्ध-तीर्थ जहाँसे कोई पवित्र आत्मा मुक्ति अथवा मोक्ष प्राप्त करता है उसे जैनधर्म में सिद्धतीर्थ कहा गया है। इसमें यतिपति मदनकीतिने ऐसे ८ सिद्धतीर्थोंका सूचन किया है । वे ये हैं : १ कैलासगिरि, २ पोदनपुर, ३ सम्मेदशिखर (पार्श्वनाथहिल), ४ पावापुर, ५ गिरनार (ऊर्जयन्तगिरि), ६ चम्पापुरी, ७ विपुलगिरि और ८ विन्ध्यागिरि । १. कैलासगिरि __ भारतीय धर्मोमें विशेषतः जैनधर्म मे कैलास गिरिका बहुत बड़ा महत्त्व बतलाया गया है । युगके आदिमें प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव (आदिनाथ)ने यहाँसे मुक्ति-लाभ प्राप्त किया था। उनके बादम नागकुमार, बालि और महाबालि आदि मुनिवरोंने भी यहींसे सिद्ध पद पाया था। जैसाकि विक्रमकी छठी शताब्दीके सुप्रसिद्ध विद्वानाचार्य पूज्यपाद (देवनन्दि) की संस्कृत निर्वाणभक्तिसे ओर अज्ञातकर्तृक प्राकृत निर्वाणकाण्डसे' प्रकट है: (क) कैलासशैलशिखरे परिनिवतोऽसौ __ शंलेसिभावमुपपद्य वृषो महात्मा।-नि० भ०, श्लो० २२ । (ख) अट्ठावयम्मि उसहो ।-नि० का० गा० नं० १ । णागकुमारमुणिदो बालि महाबालि चेव अज्झेया। अठ्ठावय-गिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥-नि० का०, १५ । मुनि उदयकोतिने भी अपनी 'अपभ्रंश निर्वाणभक्ति' में कैलास गिरिका और वहाँसे भगवान् ऋषभदेवके निर्वाणका निम्न प्रकार उल्लेख किया है (ग) कइलास-सिहरि सिहरि-रिसहनाहु, जो सिद्धउ पयडमि धम्मलाहु । यह ध्यान रहे कि अष्टापद इसी कैलासगिरिका दूसरा नाम है। जैनेतर इसे 'गौरीशङ्कर पहाड़' भी कहते हैं । भगवज्जिनसेनाचार्यके आदिपुराण तथा दूसरे दिगम्बर ग्रन्थों में इसकी बड़ी महिमा गाई गई है । श्वेताम्बर और जैनेतर सभी इसे अपना तीर्थ मानते हैं। इससे इसकी व्यापकता और महानता स्पष्ट है । किसी समय यहाँ भगवान् ऋषभदेवकी बड़ी ही मनोज्ञ और आकर्षक सातिशय सुवर्णमय दिगम्बर जिनमूत्ति १. इसके रचयिता कौन हैं और यह कितनी प्राचीन रचना है ? यह अभी अनिश्चित है फिर भी वह सात आठ-सौ वर्षसे कम प्राचीन नहीं मालूम होती। -३४६ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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