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________________ प्रशस्तिमें पं० जयचन्दजीने उनके साथ अपने विशेष सम्बन्धका भी संकेत किया है। उनके इस संकेतसे ज्ञात होता है कि रायचन्दजीने निश्चित एवं नियमित आर्थिक सहायता देकर उन्हें आर्थिक चिन्तासे मुक्त कर दिया था और तभी वे एकाग्रचित्त हो सर्वार्थसिद्धि-वचनिका लिख सके थे, जिसके लिखनेके लिए उन्हें अन्य सभी साधर्मीजनोंने प्रेरणा की थी और उनके पुत्र नंदलालने भी अनुरोध किया था । पं० जयचन्दजीने नंदलालके सम्बन्धमें लिखा है कि वह बचपनसे विद्याको पढ़ता-सुनता था। फलतः वह अनेक शास्त्रोंमें प्रवीण पंडित हो गया था। पंडितजी द्वारा दिये गये अपने इस परिचयसे उनकी तत्त्व-बुभुत्सा, जैनधर्म में अटूट श्रद्धा, तत्त्वज्ञानका आदान-प्रदान, जिनशासनके प्रसारका उद्यम, कषायकी मन्दता आदि गुणविशेष लक्षित होते हैं । पडितजीके उल्लेखानुसार उनके पुत्र पं० नन्दलालजी भी गुणी और प्रवीण विद्वान् थे । मूलाचारवचनिकाकी प्रशस्तिमें भी, जो पं० नन्दलालजीके सहपाठी शिष्य ऋषभदासजी निगोत्याद्वारा लिखी गई है, पं० नन्दलालजीको 'पं० जयचन्दजी जैसा बहुज्ञानी' बताया गया है। प्रमेयरत्नमाला-वचनिकाकी प्रशस्ति (पद्य १६) से यह भी मालूम होता है कि पं० नन्दलालजीने अपने पिता पं० जयचन्दजीको इस वचनिकाका संशोधन किया था । इससे पं० नन्दलालजीको सूक्ष्म बुद्धि और शास्त्रज्ञताका पता चलता है। पं० नन्दलालजी दीवान अमरचन्दजीकी प्रेरणा पाकर मूलाचारको पाँच-सौ सोलह गाथाओंकी वचनिका कर पाये थे कि उनका स्वर्गवास हो गया था। बादमें उस वचनिकाको ऋषभदासजी निगोत्याने पूरा किया था । निगोत्याजीने नन्दलालजीके तीन शिष्योंका भी उल्लेख किया है। वे हैं-मन्नालाल, उदयचन्द और माणिकचन्द । पं० जयचन्दजीके एक और पुत्रका, जिनका घासीराम नाम था, निर्देश पं० परमानन्दजी शास्त्रीने उनका कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं है । कि यहाँपर एक बात और ज्ञातव्य है । वह यह कि पं० जयचन्दजीकी वचनिकाओंसे सर्व साधारणको तो लाभ पहुंचा ही है, पं० भागचन्दजी (वि० सं० १९१३) जैसे विद्वानोंके लिए भी वे पथ-प्रदर्शिका हुई है । १. ताके ढिग हम थिरता पाय, करी वचनिका यह मन लाय ।-वही, प्रश० ७ । . . २. भयौ बोध तब कछु चिंतयौ, करन वचनिका मन उमगयौ । सब साधरमी प्रेरण करी, ऐसैं मैं यह विधि उच्चरी ॥-वही, प्रश० पद्य १० । ३,४. नंदलाल मेरा सूत गुनी, बालपने ते विद्या सुनी। पंडित भयो बढ़ी परवीन, ताहूने प्रेरण यह कीन ।।-वही, प्रश० पद्य ३१ । ५. तिन सम तिनके सुत भये, बहज्ञानी नन्दलाल । गाय-वत्स जिम प्रेमकी, बहुत पढ़ाये बाल ||-मूला. वच० प्रश० । ६. लिखी यहै जयचन्दनै, सोधी सुत नन्दलाल । बुध लखि भूलि जु शुद्ध करि, बाँचौ सिखैवो बाल ।। -प्रमेयर० वच० प्र० पद्य १६ । ७. मूलाचारवचनिका प्रशस्ति । ८. तव उद्यम भाषातणों, करन लगे नन्दलाल । मन्नालाल अरु उदयचन्द, माणिकचन्द जु बाल ॥-मूलाचारवचनिका प्रश० । ९. 'पं० जयचन्द और उनकी साहित्य-सेवा' शीर्षक लेख, अनेकान्त वर्ष १३; कि० ७, पृ० १७१ । • ३३७ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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