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________________ वचनिकाकार पं० जयचंदजी : अब वचनिकाकार पं0 जयचन्दजीके सम्बन्ध में विचार किया जाता है। (१) परिचय पं० जयचन्दजीने स्वयं अपना कुछ परिचय सर्वार्थसिद्धि-वचनिकाको अन्तिम प्रशस्तिमें दिया है।' उससे ज्ञात है कि वे राजस्थान प्रदेशके अन्तर्गत जयपुरसे तीस मोलकी दूरीपर डिग्गीमालपुरा रोडपर स्थित 'फागई' (फागी) ग्राममें पैदा हुए थे। इनके पिताका नाम मोतीराम था, जो 'पटवारी'का कार्य करते थे । इनकी जाति खण्डेलवाल और गोत्र छावड़ा था। श्रावक (जैन) धर्मके अनुयायी थे । परिवारमें शुभ क्रियाओंका पालन होता था। परन्तु स्वयं ग्यारह वर्षकी अवस्था तक जिनमार्गको भूले रहे और जब ग्यारह वर्षके पूर हुए, तो जिनमार्गको जानने का ध्यान आया । इसे उन्होंने अपना इष्ट और शुभोदय समझा। उसी ग्राममें एक दूसरा जिनमन्दिर था, जिसमें तेरापंथकी शैली थी और लोग देव, धर्म तथा गुरुकी श्रद्धा-उत्पादक कथा (वचनिका-तत्त्वचर्चा) किया करते थे। पं० जयचन्दजी भी अपना हित जानकर वहाँ जाने लगे और चर्चा-वार्तामें रस लेने लगे। इससे वहां उनकी श्रद्धा दृढ़ हो गई और सब मिथ्या बुद्धि छूट गई । कुछ समय बाद वे निमित्त पाकर फागईसे जयपुर आ गये। वहाँ तत्त्व-चर्चा करनेवालोंकी उन्होंने बहुत बड़ी शैली देखी, जो उन्हें अधिक रुचिकर लगो। उस समय वहाँ गुणियों, साधर्मीजनों और ज्ञानी पण्डितोंका अच्छा काल अनादि भ्रमत संसार, पायो नरभव मैं सुखकार । जन्म फागई लयौ सुथानि, मोतीराम पिताके आनि ॥११॥ पायौ नाम तहाँ जयचन्द, यह परजायतणू मकरन्द । द्रव्यदृष्टि मैं देखू जबै, मेरा नाम आतमा कबै ॥१२॥ गोत छावड़ा श्रावक धर्म, जामें भली क्रिया शुभ कर्म । ग्यारह वर्ष अवस्था भई, तब जिनमारगकी सुधि लही ।।१३।। आन इष्टको ध्यान अयोगि, अपने इष्ट चलन शुभ जोगि । तहाँ दूजौ मन्दिर जिन राज, तेरापंथ पंथ तहाँ साज ॥१४॥ देव-धर्म-गुरु सरधा कथा, होय जहाँ जन भाई यथा । तब मो मन उमग्यो तहाँ चलो, जो अपनो करनी है भलो ॥१५।। जाय तहाँ श्रद्धा दृढ़ करी, मिथ्याबुद्धि सबै परिहरी । निमित्त पाय जयपुर में आय, बड़ी ज शैली देखी भाय ।।१६।। गुणीलोक साधर्मी भले, ज्ञानी पंडित बहते मिले। पहले थे वंशीधर नाम, धरै प्रभाव भाव शुभ ठाम ॥१७॥ टोडरमल पंडित मति खरी, गोमटसार वचनिका करी। ताकी महिमा सब जन करें, वाचे पढ़ें बुद्धि विस्तरै ॥१८॥ दौलतराम गुणी अधिकाय, पंडितराय राजमैं जाय । ताकी बुद्धि लसै सब खरी, तीन पुराण वचनिका करी ॥१९॥ रायमल्ल त्यागी गृहवास, महाराम व्रतशील-निवास । मैं हूँ इनकी संगति ठानि, बुधिसारू जिनवाणी जानि ।।२०॥ -सर्वार्थसिद्धिवचनिका, अन्तिम प्रशस्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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