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________________ निश्चय और व्यहार अथवा शुद्ध और अशुद्ध नयोंसे जीवके शुद्ध और अशुद्ध स्वरूपोंको बताया है । इसीसे संस्कृत-टीकाकार श्रीब्रह्मदेवने इसे 'अध्यात्मशास्त्र' स्पष्ट कहा है और अपनी यह टीका भी उसी अध्यात्मपद्धतिसे लिखी है । अतः द्रव्य संग्रह द्रव्यानुयोगका शास्त्र होते हुए भी अध्यात्म-ग्रन्थ है। (घ) संस्कृत-टीका इसपर एकमात्र श्रीब्रह्मदेवकी संस्कृत-टीका उपलब्ध है और जो चार बार प्रकाशित हो चुकी है । दो बार रायचन्द्रशास्त्रमाला बम्बईसे, तीसरी बार पहाड़ीधीरज दिल्लीसे और चौथी बार खरखरी (धनवाद) से । यह मध्यम-परिमाणकी है, न अतिविस्तृत है और न अतिलघु । टीकाकारने प्रत्येक गाथाके पदोंका मर्मोद्धाटन बड़ी विशदतासे किया है। साथ ही दूसरे ग्रन्थोंके प्रचुर उद्धरण भी दिये हैं। ये उद्धरण आचार्य कुन्दकुन्द, गृद्धपिच्छ, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलङ्क, वीरसेन, जिनसेन, विद्यानन्द, गुणभद्र , नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, शुभचन्द्र, योगीन्दुदेव और वसुनन्दिसिद्धान्तिदेव आदि कितने ही ग्रन्थकारोंके ग्रन्थोंसे दिये गये हैं, जिनसे टीकाकारकी बहुश्रुतता और स्वाध्यायशीलता प्रकट होती है। गुणस्थानों और मार्गणाओंका विशद प्रतिपादन, सम्बद्ध कथाओंका प्रदर्शन, तत्त्वोंका सरल निरूपण और लोकभावनाके प्रकरणमें ऊर्ध्व, मध्य और अधो लोकका कथन करते हुए बीस विदेहोंका विस्तृत वर्णन उनके चारों अनुयोगोंके पाण्डित्यको सूचित करता है। गाथा नं. ३५ का उन्होंने जो ५० पृष्ठोंमें विस्तृत व्याख्यान किया है वह कम आश्चर्यजनक नहीं है । टीकाको विशेषता यह है कि इसकी भाषा सरल और प्रसादयुक्त है तथा सर्वत्र आध्यात्मिक पद्धति अपनायी गई है। अपनी इस व्याख्याको ब्रह्मदेवने 'वृत्ति' नाम दिया है और उसे तीन अधिकारों तथा आठ अन्तराधिकारोंमें विभाजित किया है। (ङ) संस्कृत-टीकामें उल्लिखित अनुपलब्ध ग्रन्थ इस टीकामें कुछ ऐसे ग्रन्थों के भी उद्धरण दिये गये हैं, जो आज उपलब्ध नहीं हैं और जिनके नामसुने जाते है । उनमें एक तो 'आचाराराधनाटिप्पण' है", जो या तो श्रीचन्द्र का होना चाहिए और या जय १. 'अत्राध्यात्मशास्त्रे यद्यपि सिद्धपरमेष्ठिन मस्कार उचितस्तथापि व्यवहारनयमाश्रित्य प्रत्युपकारस्मरणार्थ महत्परमेष्ठिनमस्कार एव कृतः ।'--ब्रह्मदेव, बृ० सं० टी० पृ० ६ । . २. द्रव्यानुयोग श्रुत (आगम) के चार अनुयोगों--स्तम्भों (प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग) मेंसे अन्यतम है । यह जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तत्त्वोंका प्रकाशन करता है । देखिए, रत्नकरण्डकश्रा० श्लोक ४६ । पं० नाथूरामजी प्रेमीने 'जैन साहित्य और इतिहास' (०२०) में प्रभाचन्द्रकृत एक 'द्रव्यसंग्रहपञ्जिका' का उल्लेख किया है, पर वह उपलब्ध न होनेसे उसके बारेमें कुछ कहा नहीं जा सकता। प्रेमीजीने भी नामोल्लेखके सिवाय उसपर कोई प्रकाश नहीं डाला और न अपने उल्लेखका कोई आधार बताया है । इससे मालूम पड़ता है कि यह रचना या तो लुप्त हो गई और या किसी शास्त्रभण्डारमें अज्ञात दशामें पड़ी हुई है । यदि लुप्त नहीं हुई तो अन्वेषकोंकी - ४. .........."बृहद्रव्यसंग्रहस्याधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन वृत्तिः प्रारम्यते ।'--बृहद्र व्य० सं० टी० पृ० २ । ५. ......""आचाराधनाटिप्पणे कथितमास्ते ।'-सं० टी० पृ० १०६।। - ३२२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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