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________________ वास्तविक हो मानें । और तब उनमें एक तादात्म्य सम्बन्ध ही सिद्ध होता है--समवाय नहीं । अतएव गुणादिकको गुणी आदिसे कथंचित् अभिन्न स्वीकार करना चाहिए । ब्रह्मदूषणसिद्धि ब्रह्माद्वैतवादियों द्वारा कल्पित ब्रह्म और अविद्या न तो स्वतः प्रतीत होते हैं, अन्यथा विवाद ही न होता, और न प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणोंसे; क्योंकि द्वैतकी सिद्धिका प्रसंग आता है । दूसरे, भेदको मिथ्या और अभेदको सम्यक बतलाना युक्तिसंगत नहीं है। कारण, भेद और अभेद दोनों रूप ही वस्तु प्रमाणसे प्रतीत होती है । अतः ब्रह्मवाद ग्राह्य नहीं है । अन्तिम उपलब्ध खण्डित प्रकरण शंका-भेद और अभेद दोनों परस्पर विरुद्ध होनेसे वे दोनों एक जगह नहीं बन सकते हैं, अतः उनका प्रतिपादक स्याद्वाद भी ग्राह्य नहीं है ? समाधान नहीं, क्योंकि भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे वे दोनों एक जगह प्रतिपादित हैं-पर्याथोंकी अपेक्षा भेद और द्रव्यकी अपेक्षा अभेद बतलाया गया है और इस तरह उनमें कोई विरोध नहीं है । एक ही रूपादिक्षणको जैसे बौद्ध पूर्व क्षणकी अपेक्षा कारण और उत्तर क्षणकी अपेक्षा कार्य दोनों स्वीकार करते हैं और इसमें वे कोई विरोध नहीं मानते। उसी तरह प्रकृतमें भी समझना चाहिए। अन्यापोहकृत उक्त भेद मानने में सांकर्यादि दोष आते हैं । अतः स्याद्वाद वस्तुका सम्यक् व्यवस्थापक होनेसे सभीके द्वारा उपादेय एवं आदरणीय है। २. वादीभसिंहमूरि (क) वादीभसिंह और उनका समय ग्रन्थके प्रारम्भमें इस कृतिको वादीभसिंसूरिकी प्रकट किया गया है तथा प्रकरणोंके अन्तमें जो समाप्तिपुष्पिकावाक्य दिये गये हैं उनमें भी उसे वादीसिंहसूरिकी ही रचना बतलाया गया है, अतः यह निस्सन्देह है कि इस कृतिके रचयिता आचार्य वादीभसिंह हैं । अब विचारणीय यह है कि ये वादीभसिंह कौनसे वादीभसिंह हैं और वे कब हुए हैं-उनका क्या समय है ? आगे इन्हीं दोनों बातोंपर विचार किया जाता है । १. आदिपुराणके कर्ता जिनसेनस्वामीने, जिनका समय ई० ८३८ है, अपने आदिपुराण में एक 'वादिसिंह' नामके आचार्यका स्मरण किया है और उन्हें उत्कृष्ट कोटिका कवि, वाग्मी तथा गमक बतलाया है । यथा कवित्वस्य परा सीमा वाग्मित्वस्य परं पदम् । गमकत्वस्य पर्यन्तो वादिसिंहोऽर्यते न कैः ।। १. यथा-'इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचितायां स्याद्वादसिद्धौ चार्वाक प्रति जीवसिद्धिः ॥१॥ इत्यादि । -३०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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