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________________ जैन-यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि विकल्पको आपने अप्रमाण माना है। अपि च, यह कल्पनात्मक व्यावृत्ति वस्तुओंमें सम्भव नहीं है अन्यथा वस्तु और अवस्तुमें साङ्कर्य हो जायगा। इसके सिवाय, खण्डादिमें जिस तरह अगोनिवृत्ति है उसी तरह गुल्मादिमें भी वह है, क्योंकि उसमें कोई भेद नहीं है-भेद तो वस्तुनिष्ठ है और व्यावृत्ति अवस्तु है । और उस हालत में 'गायको लाओ' कहनेपर जिस प्रकार खण्डादिका आनयन होता है उसीप्रकार गुल्मादिका भी आनयन होना चाहिये । यदि कहा जाय कि 'अगोनिवृत्तिका खण्डादिमें संकेत हैं, अतः ‘गायको लाओ' कहनेपर खण्डादिरूप गायका ही आनयन होता है, गुल्मादिका नहीं, क्योंकि वे अगो हैं-गो नहीं हैं' तो यह कहना भी संगत नहीं है, कारण अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त होता है। खण्डादिमें गोपना जब सिद्ध हो जाय तो उससे गुल्मादिमें अगोपना सिद्ध हो और उनके अगो सिद्ध होनेपर खण्डादिमें गोपना की सिद्धि हो । अगर यह कहें कि 'वहनादि कार्य खण्डादिमें ही सम्भव है, अतः 'गो' का व्यपदेश उन्हींमें होता है, गुल्मादिकमें नहीं' तो यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि वह कार्य भी उक्त गुल्मादिमें क्यों नहीं होता, क्योंकि उस कार्यका नियामक अपोह ही है और वह अपोह सब जगह अविशिष्ट-समान है । तात्पर्य यह कि अपोहकृत वस्तुमें धर्मभेदकी कल्पना उचित नहीं है, किन्तु स्वरूपतः ही उसे मानना संगत है । अतः जिस प्रकार एक ही चित्त पूर्व क्षणकी अपेक्षा कार्य और उत्तर क्षणकी अपेक्षा कारण होनेसे एक साथ उसमें कार्यता और कारणतारूप दोनों धर्म वास्तविक सिद्ध होते हैं उसी प्रकार सब वस्तुएँ युगपत अनेकधर्मात्मक सिद्ध हैं। ४. क्रमानेकान्तसिद्धि पूर्वोत्तर चित्त क्षणोंमें यदि एक वास्तविक अनुस्यूतपना न हो तो उनमें एक सन्तान स्वीकार नहीं की जा सकती है और सन्तानके अभावमें फलाभाव निश्चित है क्योंकि करनेवाले चित्तक्षणसे फलभोगनेवाला चित्तक्षण भिन्न है और इसलिये एकत्वके बिना 'कर्ताको ही फलप्राप्ति' नहीं हो सकती। यदि कहा जाय कि 'पूर्व क्षण उत्तर क्षणका कारण है, अतः उसके फलप्राप्ति हो जायगी' तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि कारणकार्यभाव तो पिता-पुत्रमें भी है और इसलिये पुत्रकी क्रियाका फल पिताको भी प्राप्त होनेका प्रसंग आयेगा। बौद्ध-पिता-पुत्रमें उपादानोपादेयभाव न होनेसे पुत्रकी क्रियाका फल पिताको प्राप्त नहीं हो सकता। किन्तु पूर्वोत्तर क्षणोंमें तो उपादानोपादेयभाव मौजूद है, अतः उनके फलका अभाव नहीं हो सकता ? जैन-यह उपादानोपादेयभाव सर्वथा भिन्न पूर्वोत्तर क्षणोंकी तरह पिता-पुत्र में भी क्यों नहीं है, क्योंकि भिन्नता उभयत्र एक-सी है। यदि उसमें कथंचिद् अभेद मानें तो जैनपने का प्रसंग आवेगा, कारण जैनोंने ही कथंचिद् अभेद उनमें स्वीकार किया है, बौद्धोंने नहीं । बौद्ध-पिता-पुत्रमें सादृश्य न होनेसे उनमें उपादानोपादेयभाव नहीं है, किन्तु पूर्वोत्तर क्षणोंमें तो सादृश्य पाया जानेसे उनमें उपादानोपादेयभाव है । अतः उक्त दोष नहीं है ? जैन-यह कथन भी संगत नहीं है, क्योंकि उक्त क्षणोंमें सादृश्य माननेपर उनमें उपादानोपादेयभाव नहीं बन सकता । सादृश्यमें तो वह नष्ट ही हो जाता है । वास्तवमें सदृशता उनमें होती है जो भिन्न होते हैं और उपादानोपादेयभाव अभिन्न (एक) में होता है। - २९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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