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________________ हैं - एक सहानेकान्त और दूसरा क्रमानेकान्त । और इन दोनों अनेकान्तोंकी प्रसिद्धि एवं मान्यताको उन्होंने पच्छाचार्य 'गुणपर्ययवद्द्रव्यम्' [त० सू० ५-३७] इस सूत्र कथन से समर्थित किया है अथवा सूत्रकारके कथनको उक्त दो अनेकान्तोंकी दृष्टिसे सार्थक बतलाया है । अतः युगपदेनकान्त और क्रमाने कान्तरूप दो अनेकान्तोंकी प्रस्तुत चर्चा जैन दर्शनकी एक बहुत प्राचीन चर्चा मालूम होती है जिसका स्पष्ट उल्लेख इन दोनों आचार्यो द्वारा ही हुआ जान पड़ता है। यह प्रकरण ८९३ कारिकाओं में समाप्त है । ५. भोक्तृत्वाभावसिद्धि - इसमें सर्वथा नित्यवादीको लक्ष्य करके उसके नित्यैकान्तकी समीक्षा की गई है। कहा गया है कि यदि आत्मादि वस्तु सर्वथा नित्य - कूटस्थ - - सदा एक-सी रहने वाली -- अपरिवर्तनशील हो तो वह न कर्ता बन सकती है और न भोक्ता । कर्ता माननेपर भोक्ता और भोक्ता माननेपर कर्ता अभावका प्रसङ्ग आता है, क्योंकि कर्तापन और भोक्तापन ये दोनों क्रमवर्ती परिवर्तन हैं और वस्तु नित्यवादियोंद्वारा सर्वथा अपरिवर्तनशील -- नित्य मानी गई है । यदि वह कर्तापनका त्यागकर भोक्ता बने तो वह नित्य नहीं रहती -- अनित्य हो जाती है, क्योंकि कर्तापन आदि वस्तु से अभिन्न हैं । यदि भिन्न हों तो वे आत्मा सिद्ध नहीं होते, क्योंकि उनमें समवायादि कोई सम्बन्ध नहीं बनता । अतः नित्यैकान्त में आत्माके भोक्तापन आदिका अभाव सिद्ध है । इस प्रकरणमें ३२ कारिकाएँ हैं । ६. सर्वज्ञाभावसिद्धि - इसमें नित्यवादी नैयायिक, वैशेषिक और मीमांसकोंको लक्ष्य करके उनके स्वीकृत नित्यैकान्त प्रमाण (आत्मा - ईश्वर अथवा वेद) में सर्वज्ञताका अभाव प्रतिपादन किया गया है । इसमें २२ कारिकाएँ हैं । ७. . जगत्कर्तृत्वाभावसिद्धि - इसमें ईश्वर जगत्कर्ता सिद्ध नहीं होता, यह बतलाया गया है । इसमें भी २२ कारिकाएँ है । ८. अहंत्सर्वज्ञसिद्धि -- इसमें सप्रमाण अर्हन्तको सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है और विभिन्न बाधाओंका निरसन किया गया है । इसमें २१ कारिकाएँ हैं । ९ अर्थापत्तिप्रामाण्यसिद्धि - नवाँ प्रकरण अर्थापत्तिप्रामाण्यसिद्धि है । इसमें सर्वज्ञादिकी साधक अर्थापत्तिको प्रमाण सिद्ध करते हुए उसे अनुमान प्रतिपादित किया गया है और उसे माननेकी खास आवश्यकता बतलाई गई है । कहा गया है कि जहाँ अर्थापत्ति ( अनुमान) का उत्थापक अन्यथानुपपन्नत्व-अविनाभाव होता है वहीं साधन साध्यका गमक होता है । अत एव उसके न होने और अन्य पक्षधर्मत्वादि तीन रूपों के होने पर भी 'वह श्याम होना चाहिये, क्योंकि उसका पुत्र है, अन्य पुत्रोंकी तरह इस अनुमान में प्रयुक्त ' उसका पुत्र होना' रूप साधन अपने 'श्यामत्व' रूप साध्यका गमक नहीं है । अतः अर्थापत्ति अप्रमाण नहीं है - प्रमाण है और वह अनुमानस्वरूप है । इस प्रकरण में २३ कारिकाएँ हैं । १०. वेदपौरुषेयत्वसिद्धि - दशवां प्रकरण वेदपौरुषेयत्वसिद्धि हैं । इसमें वेदको सयुक्तिक पौरुषेय सिद्ध किया गया है । और उसकी अपौरुषेय-मान्यताकी मार्मिक मीमांसा की गई है। यह प्रकरण ३९ कारिकाओं में समाप्त है | ११. परतः प्रामाण्यसिद्धि - ग्यारहवाँ प्रकरण परतः प्रामाण्यसिद्धि है । इसमें मीमांसकोंके स्वतः प्रामाण्य मतको कुमारिके मीमांसाश्लोकवार्तिक ग्रन्थके उद्धरणपूर्वक कड़ी आलोचना करते हुए प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ( आगम ) प्रमाणों में गुणकृत प्रामाण्य सिद्ध किया गया है । इस प्रकरण में २८ कारि काएँ हैं । ३७ Jain Education International - २८९ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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