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________________ अनुमानका अङ्ग एकमात्र व्याप्ति : न्याय, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध सभीने पक्षधर्मता और व्याप्ति दोनोंको अनुमानका अंग माना है । परन्तु जैन तार्किकोंने केवल ब्याप्तिको उसका अंग बतलाया है । उनका मत है कि अनुमानमें पक्षधर्मता अनावश्यक है । 'उपरि वृष्टिरभूत् अधोपूरान्यथानुपपत्तेः' आदि अनुमानोंमें हेतु पक्षधर्म नहीं है फिर भी व्याप्तिके बलसे वह गमक है । ‘स श्यामस्तन्पुत्रत्वादितरतत्पुत्रवत्' इत्यादि असद् अनुमानोंमें हेतु पक्षधर्म हैं किन्तु अविनाभाव न होनेसे वे अनुमापक नहीं है। अतः जैन चिन्तक अनुमानका अंग एकमात्र व्याप्ति (अविनाभाव ) को ही स्वीकार करते हैं, पक्षधर्मताको नहीं । पर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुओंकी परिकल्पना : ___ अकलङ्कदेवने कुछ ऐसे हेतुओंकी परिकल्पना की है जो उनसे पूर्व नहीं माने गये थे । उनमें मुख्यतया पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर ये तीन हेतु हैं। इन्हें किसी अन्य तार्किकने स्वीकार किया हो, यह ज्ञात नहीं । किन्तु अकलङ्कने इनकी आबश्यकता एवं अतिरिक्तताका स्पष्ट निर्देश करते हुए स्वरूप प्रतिपादन किया है। अतः यह उनकी देन कही जा सकती है । प्रतिपाद्योंकी अपेक्षा अनुमान-प्रयोग अनुमानप्रयोगके सम्बन्धमें जहाँ अन्य भारतीय दर्शनोंमें ब्युत्पन्न और अव्युत्पन्न प्रतिपाद्योंकी विवक्षा किये बिना अवयवोंका सामान्य कथन मिलता है वहाँ जैन विचारकोंने उक्त प्रतिपाद्योंकी अपेक्षा उनका विशेष प्रतिपादन भी किया है। व्यत्पन्नोंके लिए उन्होंने पक्ष और हेतु ये दो अवयव आवश्यक बतलाये हैं। उन्हें दृष्टान्त आवश्यक नहीं है। 'सर्व क्षणिक सत्त्वात्' जैसे स्थलोंमें बौद्धोंने और 'सर्वमभिधेयं प्रमेयस्वात्' जैसे केवलान्वयिहेतुक अनुमानोंमें नैयायिकोंने भी दृष्टान्तको स्वीकार नहीं किया। अब्युत्पन्नोंके लिए उक्त दोनों अवयवोंके साथ दृष्टान्त, उपनय और निगमन इन तीन अवयवोंकी भी जैन चिन्तकोंने यथायोग्य आवश्यकता प्रतिपादित की है। इसे और स्पष्ट यों समझिए गृद्धपिच्छ, समन्तभद्र, पूज्यपाद और सिद्धसेनके प्रतिपादनोंसे अवगत होता है कि आरम्भमें प्रतिपाद्यसामान्यकी अपेक्षासे पक्ष, हेतु और दृष्टान्त इन तीन अवयवोंसे अभिप्रेतार्थ (साध्य) की सिद्धि की जाती थी। पर उत्तरकालमें अकलङ्कका संकेत पाकर कुमारनन्दि और विद्यानन्दने प्रतिपाद्योंको व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न दो वर्गों में विभक्त करके उनकी अपेक्षासे पृथक्-पृथक् अवयवोंका कथन किया। उनके बाद माणिक्यनन्दि, देवसूरि आदि परवर्ती जैन ग्रन्थकारोंने उनका समर्थन किया और स्पष्टतया व्युत्पन्नोंके लिए पक्ष और हेतु ये दो तथा अव्युत्पन्नोंके बोधार्थ उक्त दोके अतिरिक्त दृष्टान्त, उपनय और निगमन ये तीन सब मिलाकर पाँच अवयव निरूपित किये । भद्रबाहुने प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाशुद्धि आदि दश अवयवोंका भी उपदेश दिया, जिसका अनुसरण देवसूरि, हेमचन्द्र और यशोविजयने किया है । व्याप्तिका ग्राहक एकमात्र तर्क : अन्य भारतीय दर्शनोंमें भूयोदर्शन, सहचारदर्शन और व्यभिचाराग्रहको व्याप्तिग्राहक माना गया है । न्यायदर्शनमें वाचस्पति और सांख्यदर्शनमें विज्ञानभिक्षु इन दो तार्किकोंने व्याप्तिग्रहकी उपर्युक्त सामग्रीमें तर्कको भी सम्मिलित कर लिया। उनके बाद उदयन, गंगेश, वर्द्धमान प्रभृति तार्किकोंने भी उसे व्याप्तिग्राहक मान लिया। पर स्मरण रहे, जैन परम्परामें आरम्भसे तर्कको, जिसे चिन्ता, ऊहा आदि शब्दोंसे व्यवहृत किया गया है, अनुमानकी एकमात्र सामग्रीके रूप में प्रतिपादित किया है। अकलङ्क ऐसे जैन -२७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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