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________________ कुमारिलके मीमांसाश्लोकवातिकमें' व्याप्ति और अविनाभाव दोनों शब्द मिलते हैं। पर उनके पूर्व न जैमिनिसूत्रमें वे हैं और न शाबर-भाष्यमें । बौद्ध तार्किक शंकरस्वामीके न्यायप्रवेश में भी अविनाभाव और व्याप्ति शब्द नहीं हैं। पर उनके अर्थका बोधक नान्तरीयक (अनन्तरीयक) शब्द पाया जाता है। धर्मकीति३, धर्मोत्तर, अर्चट' आदि बौद्ध नैयायिकोंने अवश्य प्रतिबन्ध और नान्तरीयक शब्दोंके साथ इन दोनोंका भी प्रयोग किया है। इनके पश्चात् तो उक्त शब्द बौद्ध तर्कग्रन्थोंमें बहलतया उपलब्ध हैं। तब प्रश्न है कि अविनाभाव और व्याप्तिका मूल स्थान क्या है ? अनुसन्धान करनेपर ज्ञात होता है कि प्रशस्तपाद और कुमारिलसे पूर्व जैन तार्किक समन्तभदने, जिनका समय विक्रमकी २री, ३री शती माना जाता है, अस्तित्वको नास्तित्वका और नास्तित्वको अस्तित्वका अविनाभावी बतलाते हुए अविनाभावका व्यवहार किया है। एक-दूसरे स्थलपर भी उन्होंने उसे स्पष्ट स्वीकार किया है । और इस प्रकार अविनाभावका निर्देश मान्यताके रूपमें सर्वप्रथम समन्तभद्रने किया जान पड़ता है। प्रशस्तपादकी तरह उन्होंने उसे त्रिलक्षणरूप स्वीकार नहीं किया। उनके पश्चात् तो वह जैन परम्परामें हेतुलक्षणरूपमें ही प्रतिष्ठित हो गया। पूज्यपादने, जिनका अस्तित्व-समय ईसाकी पांचवीं शताब्दी है, अविनाभाव और व्याप्ति दोनों शब्दोंका प्रयोग किया है । सिद्धसेन', पात्रस्वामी", कुमारनन्दि१२, अकलंक ३, माणिक्यनन्दि आदि जैन तर्कग्रंथकारोंने अविनाभाव, व्याप्ति और अन्यथानुपपत्ति या अन्यथानुपपन्नत्व तीनोंका व्यवहार पर्याय-शब्दोंके रूपमें किया है। जो (साधन) जिस (साध्य)के बिना उपपन्न न हो उसे अन्यथानुपपन्न कहा गया है ।" असम्भव नहीं कि शाबरभाष्यगत१६ अर्थापत्त्युत्त्थापक अन्यथानुपपद्यमान और प्रभाकरको बृहतीमें" उसके लिए प्रयुक्त अन्यथानुपपत्ति शब्द अर्थापत्ति और अनुमानको अभिन्न मानने वाले जैन ताकिकोंसे अप१. मी० श्लोक अनु० खं० श्लो० ४, १२, ४३ तथा १६१ । २. न्या० प्र०५० ४, ५ । ३. प्रमाणवा० १३, ११३२ तथा न्यायबि० १० ३०,९३ । हेतुबि० पृ० ५४ । ४. न्यायबि० टी० पृ० ३० । ५. हेतुबि० टी० १० ७, ८, १०, ११ आदि । ६. श्री जुगलकिशोर मुख्तार, स्वामी समन्तभद्र पृ० १६६ । ७. अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्यकर्मिणि । नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्यकर्मिणि । -आप्तमी० का०१७, १८ । ८. धर्मधर्म्यविनाभाव: सिद्धयत्यन्योन्यवीक्षया ।-वही, का० ७५ । ९. स० सि० ५।१८, १०१४ । १०. न्यायाव० १३, १८, २०, २२ । ११. तत्त्वसं० प० ४०६ पर उद्ध त 'अन्यथानुपपन्नत्वं' आदि कारि० । १२. प्र० प० पृ० ४९ में उद्ध त 'अन्यथानुपपत्येक क्षणं' आदि कारि० । १३. न्या० वि० २।१८७, ३२३, ३२७, ३२९ । १४ परी० मु० ३।११, १५, १६, ९४, ९५, ९६ । १५. साधनं प्रकृताभावेऽनुपपन्नं-1-न्यायवि० २।६९, तथा प्रमाणसं० २१ । १६. अर्थापत्तिरपि दष्टः श्रतो बार्थोऽन्यथा नोपपद्यते इत्यर्थकल्पना ।-शाबरभा० १११।५. बहती प० ११० । १७. केयमन्यथानुपपत्तिर्नाम ? "न हि अन्यथानुपपत्तिः प्रत्यक्ष समधिगम्या । बृहती पृ० ११०, १११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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