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________________ होते हैं। पर वह सम्बन्ध व्याप्ति अथवा अविनाभाव है, इसका वहाँ कोई निर्देश नहीं है । गौतमके हेतुलक्षणप्रदर्शक सूत्रोंसे' भी केवल यही ज्ञात होता है कि हेतु वह है जो उदाहरणके साधर्म्य अथवा वैधय॑से साध्यका साधन करे। तात्पर्य यह कि हेतुको पक्षमें रहनेके अतिरिक्त सपक्ष में विद्यमान और विपक्षसे व्यावृत्त होना चाहिए, इतना ही अर्थ हेतुलक्षणसूत्रसे ध्वनित होता है, हेतुको व्याप्त (व्याप्तिविशिष्ट या अविनाभावी) भी होना चाहिए, इसका उनसे कोई संकेत नहीं मिलता। उद्योतकरके २ न्यायवार्तिकमें अविनाभाव और व्याप्ति दोनों शब्द प्राप्त हैं । पर उद्योतकरने उन्हें परमतके रूपमें प्रस्तुत किया है तथा उनकी आलोचना भी की है। इससे प्रतीत होता है कि न्यायवार्तिककारको भी न्यायसूत्रकार और न्यायभाष्यकारकी तरह अविनाभाव और व्याप्ति दोनों अमान्य हैं । उल्लेख्य है कि उद्योतकर अविनाभाव और व्याप्तिकी आलोचना (न्यायवा० १।१।५, पृष्ठ ५४, ५५) कर तो गये । पर स्वकीय सिद्धान्तकी व्यवस्थामें उनका उपयोग उन्होंने असन्दिग्ध रूपमें किया है। उनके परवर्ती वाचस्पति मिश्रने अविनाभावको हेतुके पाँच रूपोंमें समाप्त कहकर उसके द्वारा ही समस्त हेतुरूपोंका संग्रह किया है। किन्तु उन्होंने भी अपने कथनको परम्परा-विरोधी समझकर अविनाभावका परित्याग कर दिया है और उद्योतकरके अभिप्रायानुसार पक्षधर्मत्वादि पाँच हेतुरूपोंको ही महत्त्व दिया है, अविनाभावको नहीं। जयन्त भट्टने" अविनाभावको स्वीकार करते हुए भी उसे पक्षधर्मत्वादि पाँच रूपोंमें समाप्त बतलाया है। इस प्रकार वाचस्पति और जयन्त भटके द्वारा स्पष्टतया अविनाभाव और व्याप्तिका प्रवेश न्यायपरम्परामें हो गया तो उत्तरवर्ती न्यायग्रन्थकारोंने उन्हें अपना लिया और उनकी व्याख्याएँ आरम्भ कर दीं । यही कारण है कि बौद्ध ताकिकों द्वारा मुख्यतया प्रयुक्त अनन्तरीयक (या नान्तरीयक) तथा प्रतिबन्ध और जैन तर्कग्रन्थकारों द्वारा प्रधानतया प्रयोगमें आने वाले अविनाभाव एवं व्याप्ति जैसे शब्द उद्योतकरके १. उदाहरणसाधर्म्यात् साध्यसाधनं हेतुः । तथा वैधात् । --न्यायसू० १।११३४, ३५ । २. (क) अविनाभावेन प्रतिपादयतीति चेत् । अथापीदं स्यात् अविनाभावोऽग्निधूमयोरतो धूमदर्शनादग्नि प्रति पद्यत इति । तन्न । विकल्पानुपपत्तेः । अग्निधमयोरविनाभाव इति कोऽर्थः ? कि कार्यकारणभाव: उतैकार्थसमवायः तत्सम्बन्धमात्रं वा ।.....-उद्योतकर, न्यायवा० १।१।५, पृष्ठ ५०, चौखम्भा, काशी, १९१६ ई० । (ख) अथोत्तरमवधारणमवगम्यते तस्य व्याप्तिरर्थः तथाप्यनुमेयमवधारितं व्याप्त्या न धर्मो, यत एव करणं ततोऽन्यत्रावधारणमिति । सम्भवव्याप्त्या चानुमेयं नियतं....-वही, ११११५, पृष्ठ ५५, ५६ । ३. (क) सामान्यतोदृष्टं नाम अकार्याकारणीभूतेन यत्राविनाभाविना विशेषणेन विशेष्यमाणो धर्मी गम्यते तत् सामान्यतोदृष्टं यथा बलाकया सलिलानुमानम् ।-न्यायवा० १११।५, पृ० ४७ । (ख) प्रसिद्धमिति पक्षे व्यापकं, सदिति सजातीयेऽस्ति, असन्दिग्धमिति सजातीयाविनाभावि । -वही, १।१।१५, पृष्ठ ४९। ४. यद्यप्यविनाभावः पंचसु चतुर्पु वा रूपेषु लिंगस्य समाप्यते इत्यविनाभावेनैव सर्वाणि लिंगरूपाणि संगृह्यन्ते, तथापीह प्रसिद्धसच्छब्दाभ्यां द्वयोः संग्रहे गोवलीबर्दन्यायेन तत्परित्यज्य विपक्षव्यतिरेकासत्प्रतिपक्षत्वा बाघितविषयत्वानि संगृह्णाति ।-न्यायवा० ता० टी० १।११५, पृष्ठ १७८, चौखम्भा. १९२५ ई० । ५. एतेषु पंचलक्षणेषु अविनाभावः समाप्यते । --न्यायकलिका पृष्ठ २ । -२६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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