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________________ तरह दृष्टसाधर्म्यवत् न होकर सामान्यतोदृष्ट है । अनुयोगद्वारगत पूर्ववत् जैसा उदाहरण उपायहृदय (पृ० १३) में भी आया है। इन अनुमानभेद-प्रभेदों और उनके उदाहरणोंके विवेचनसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गौतमके न्यायसूत्रमें जिन तीन अनुमानभेदोंका निर्देश है वे उस समयकी अनुमान-चर्चामें वर्तमान थे। अनुयोगद्वारके अनुमानोंकी व्याख्या अभिधामूलक है। पूर्ववत्का शाब्दिक अर्थ है पूर्वके समान किसी वस्तु को वर्तमानमें देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करना । स्मरणीय है कि द्रष्टव्य वस्तु पूर्वोत्तरकालमें मूलतः एक ही है और जिसे देखा गया है उसके सामान्य धर्म पूर्वकालमें भी विद्यमान रहते हैं तथा उत्तरकालमें भी पाये जाते हैं। अतः पूर्वदृष्टके आधारपर उत्तरकालमें देखी वस्तुकी जानकारी प्राप्त करना पूर्ववत् अनुमान है। इस प्रक्रियामें पूर्वांश अज्ञात है और उत्तरांश ज्ञात । अतः ज्ञातसे अज्ञात (अतीत) अंशको जानकारी (प्रत्यभिज्ञा) की जाती है । जैसा कि अनुयोग और उपायहृदयमें दिये गये उदाहरणसे प्रकट है। शेषवत्में कार्य-कारण, गुण-गुणी, अवयव-अवयवी एवं आश्रय-आश्रयीमेंसे अविनाभावी एक अंशको ज्ञातकर शेष (अवशिष्ट) अंशको जाना जाता है। शेषवत् शब्दका अभिधेयार्थ भी यही है। साधर्म्यको देखकर तत्तुल्यका ज्ञान प्राप्त करना दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान है। यह भी वाच्यार्थमूलक है। यद्यपि इसके अधिकांश उदाहरण सादृश्यप्रत्यभिज्ञानके तुल्य हैं । पर शब्दार्थंके अनुसार यह अनुमान सामान्यदर्शनपर आश्रित है। दूसरे, प्राचीन कालमें प्रत्यभिज्ञानको अनुमान ही माना जाता था । उसे पृथक् माननेकी परम्परा दार्शनिकोंमें बहुत पीछे आयी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अनुयोगसूत्र में उक्त अनुमानोंकी विवेचना पारिभाषिक न होकर अभिधामूलक है। पर न्यायसूत्रके व्याख्याकार वात्स्यायनने उक्त तीनों अनुमान-भेदोंकी व्याख्या वाच्यार्थके आधारपर नहीं की। उन्होंने उनका स्वरूप पारिभाषिक शब्दावलीमें ग्रथित किया है। इससे यदि यह निष्कर्ष निकाला जाय कि पारिभाषिक शब्दोंमें प्रतिपादित स्वरूपकी अपेक्षा अवयवार्थ द्वारा विवेचित स्वरूप अधिक मौलिक एवं प्राचीन होता है तो अयुक्त न होगा, क्योंकि अभिधाके अनन्तर ही लक्षणा या व्यंजना या रूढ़ शब्दावली द्वारा स्वरूप-निर्धारण किया जाता है। दूसरे, वात्स्यायनको त्रिविध अनुमान-व्याख्या अनुयोगद्वारसूत्रकी अपेक्षा अधिक पुष्ट एवं विकसित है। अनुयोगद्वारसूत्र में जिस तथ्यको अनेक उदाहरणों द्वारा उपस्थित किया है उसे वात्स्यायनने संक्षेप में एक-दो पंक्तियों में हो निबद्ध किया है। अतः भाषाविज्ञान और विकास-सिद्धान्तकी दृष्टिसे अनुयोगद्वारका अनुमान-निरूपण वात्स्यायनके अनुमान-व्याख्यानसे प्राचीन प्रतीत होता है। (ङ) अवयव-चर्चा : अनुमानके अवयवोंके विषयमें आगमोंमें तो कोई कथन उपलब्ध नहीं होता । किन्तु उनके आधारसे रचित तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वार्थसूत्रकारने' अवश्य अवयवोंका नामोल्लेख किये बिना पक्ष (प्रतिज्ञा), हेतु और दृष्टान्त इन तीनके द्वारा मुक्त जीवका ऊर्ध्वगमन सिद्ध किया है, जिससे ज्ञात होता है कि आरम्भमें जैन परम्परामें अनुमानके उक्त तीन अवयव मान्य रहे हैं। समन्तभद्र, पूज्यपाद और सिद्धसेनने भी इन्हीं तीन अवयवोंका निर्देश किया है । भद्र बाहुने दशवकालिकनियुक्ति.में अनुमानवाक्यके दो, तीन, पाँच, दश और १. त० सू० १०१५, ६,७ । २. आप्तमी० ५, १७, १८ तथा युक्त्यनु० ५३ । ३. स० सि० १०५, ६, ७। ४. न्यायाव० १३, १४, १७, १८, १९ । ५. दशवै० नि० गा० ४९-१३७ । -२५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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