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________________ व्याप्तिग्रहण के प्रकारका निरूपण भी हम प्रशस्तपादके भाष्यमें सर्वप्रथम देखते हैं। उन्होंने उसे बतलाते हुए लिखा है कि 'जहाँ धूम होता है वहाँ अग्नि होती है और अग्नि न होने पर धूम भी नहीं होता, इस प्रकारसे व्याप्तिको ग्रहण करने वाले व्यक्तिको असन्दिग्ध घूमको देखने और धूम तथा वह्निके साहचर्यका स्मरण होनेके अनन्तर अग्निका ज्ञान होता है । इसी तरह सभी अनुमानोंमें व्याप्तिका निश्चय अन्वयव्य तिरेकपूर्वक होता है । अतः समस्त देश तथा काल में साध्याविनाभूत लिंग साध्य का अनुमापक होता है ।' व्याप्तिग्रहणके प्रकारका इस तरहका स्पष्ट निरूपण प्रशस्तपादसे पूर्व उपलब्ध नहीं होता। प्रशस्तपादने ऐसे कतिपय हेतुओंके उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जिनका अन्तर्भाव सूत्रकार कणादके उक्त कार्यादि पंचविध हेतुओंमें नहीं होता । यथा-चन्द्रोदयसे समुद्रवृद्धि और कुमुदविकासका, शरद्धे जलप्रसादसे अगस्त्योदयका अनुमान करना । अतएव वे सत्र कारके हेतुकथनको अवधारणार्थक न मानकर 'अस्येदम्' इस सम्बन्धमात्रके सूचक वचनसे चन्द्रोदयादि हेतुओंका, जो कार्यादिरूप नहीं हैं, संग्रह कर लेते हैं । यह प्रतिपादन भी प्रशस्तपादकी अनुमानके क्षेत्र में एक देन है। अनुमानके दृष्ट और सामान्यतोदृष्टके भेदसे दो भेदों तथा स्वनिश्चितार्थानुमान और परार्थानुमानके भेदसे भी दो भेदोंका वर्णन, शब्द, चेष्टा, उपमान, अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव और ऐति ह्य का अनुमानमें अन्तर्भाव-प्रतिपादन, परार्थानुमानवाक्यके प्रतिज्ञा, अपदेश, निदर्शन, अनुसन्धान, प्रत्याम्नाय इन पाँच अवयवोंकी परिकल्पना, हेत्वाभासोंका अपने ढंगका चिन्तन, अनध्यवसितनामके हेत्वाभासकी कल्पना और फिर उसे असिद्धके भेदोंमें हो अन्तर्भूत करना तया निदर्शनके विवेचनप्रसंगमें निदर्शनाभासोंका कथन, जो न्यायदर्शनमें उपलब्ध नहीं होता, केवल जैन ओर बौद्ध तर्क ग्रन्थोंमें वह मिलता है, आदि अनुमानसम्बन्धी सामग्री प्रशस्तपादभाष्य में पर्याप्त विद्यमान है। व्योमशिव, श्रीधर आदि वैशेषिक तार्किकोंने भी अनुमानपर विचार किया है और उसे समृद्ध बनाया है। (ग) बौद्ध दर्शनमें अनुमानका विकास बौद्ध ताकिकोंने तो भारतीय तर्कशास्त्रको इतना प्रभावित किया है कि अनुमानपर उनके द्वारा संख्याबद्ध ग्रन्थ लिखे गये हैं। उपलब्ध बौद्ध तर्कग्रन्थोंमें सबसे प्राचीन तर्कशास्त्र और उपायहृदय' नामक १. विधिस्तु यत्र घूमस्तत्राग्निरग्न्यभावे घूमोऽपि न भवतीति । एवं प्रसिद्धसमयस्य सन्निग्धघूमदर्शनात् साहचर्यानुस्मरणात् तदनन्तरमग्न्यध्यवसायो भवतीति । एवं सर्वत्र देशकालाविनाभूतमितरस्य लिंगम् । -प्रश० भा० पृष्ठ १०२, १०३ २. शास्त्रे कार्यादिग्रहणं निदर्शनार्थ कृतं नावधारणार्थम् । कस्मात् ? व्यतिरेकदर्शनात् । तद्यथा-व्यवहितस्य हेतुलिङ्गम्, चन्द्रोदयः समुप्रवृद्धेः कुमुदविकासस्य च'.."|-वही, पृष्ठ १०४ । ३. प्रश० भा० पृष्ठ १०४ । ४ वही पृष्ठ १०६, ११३ । ५. वही, पृष्ठ १०६-११२ । ६. वही, पृष्ठ ११४-१२७ । ७. वही, पृष्ठ ११६-१२१ । ८. वही, पृष्ठ ११६ तथा १२० । ९. वही, पृष्ठ १२२ । १०. ओरियंटल इंस्टीट्यूट बड़ौदा द्वारा प्रकाशित Per Dinnaga Budhist texts on Logic Form Chinese Sources के अन्तर्गत । ११. वही। -- २५० -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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