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________________ पंचावयवयुक्त वाक्यके गुणदोषोंका वेत्ता और 'अनुमानविभागबित्' बतलाया है। इन समस्त उल्लेखोंसे अवगत होता है कि महाभारतमें अनुमानके उपादानों और उसके व्यवहार की चर्चा है । आन्वीक्षिकी शब्द अनुमानका बोधक है । इसका यौगिक अर्थ है अनु–पश्चात् + ईक्षा-देखना अर्थात् फिर जाँच करना। वात्स्यायनके अनुसार प्रत्यक्ष और आगमसे देखे-जाने पदार्थको विशेष रूपसे जाननेका नाम 'अन्वीक्षा' है और यह अन्वीक्षा ही अनुमान है । अन्वीक्षापूर्वक प्रवृत्ति करनेवाली विद्या आन्वीक्षिकी-न्यायविद्या-न्यायशास्त्र है। तात्पर्य यह कि जिस शास्त्रमें वस्तु-सिद्धिके लिए अतमानका विशेष व्यवहार होता है उसे वात्स्यायनने अनुमानशास्त्र, न्यायशास्त्र, न्यायविद्या और आन्वीक्षिकी बतलाया है। इस प्रकार आन्वीक्षिकी न्यायशास्त्रकी संज्ञाको धारण करती हुई अनुमानके रूपको प्राप्त हई है। डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषणने२ आन्वीक्षिकीमें आत्मा और हेतु दोनों विद्याओंका समावेश किया है। उनका मत है कि सांख्य, योग और लौकायत आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि और असिद्धिमें प्राचीन कालसे ही हेतुवाद या आन्वीक्षिकीका व्यवहार करते आ रहे हैं। कौटिल्यके अर्थशास्त्रमें आन्वीक्षिकीके समर्थनमें कहा गया है कि विभिन्न युक्तियों द्वारा विषयोंका बलाबल इसी विद्याके आश्रयसे ज्ञात होता है। यह लोकका उपकार करती है, दुःख-सुखमें बुद्धिको स्थैर्य प्रदान करती है, प्रज्ञा, वचन और क्रियामें कुशलता लाती है । जिस प्रकार दीपक समस्त पदार्थों का प्रकाशक है उसी प्रकार यह विद्या भी सब विद्याओं, समस्त कार्यों और समस्त धर्मोको प्रकाशिका है। कौटिल्यके इस विवेचन और उपर्युक्त वर्णनसे आन्वीक्षिकी विद्याको अनुमानका पूर्वरूप कहा जा सकता है। मनुस्मृतिमें जहाँ तर्क और तर्को शब्दोंका प्रयोग मिलता है वहाँ हेतुक, आन्वीक्षिकी और हेतुशास्त्र शब्द भी उपलब्ध होते हैं । एक स्थानपर' तो धर्मतत्त्वके जिज्ञासुके लिए प्रत्यक्ष और विविध आगमरूप शास्त्र के अतिरिक्त अनुमानको भी जाननेका स्पष्ट निर्देश किया है। इससे प्रतीत होता है कि मनुस्मृतिकारके समयमें हेतुशास्त्र और आन्वीक्षिकी शब्दोंके साथ अनुमान शब्द भी व्यवहृत होने लगा था और उसे असिद्ध या विवादापन्न वस्तुओंकी सिद्धिके लिए उपयोगी माना जाता था । षट्खण्डागममें 'हेतुवाद', स्थानाङ्गसूत्रमें 'हेतु', भगवतीसूत्रमें 'अनुमान' और अनुयोगसूत्रमें° १. प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानं साऽन्वीक्षा । प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा । तथा प्रवर्तत इत्यान्वी क्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम् ।-वात्स्यायन, न्यायभा० १११११, पृ० ७। 2. A History of Indian Logice, Calcutta University 1921, page 5. ३. कौटिल्य, अर्थशास्त्र, विद्यासमुद्देश १।१, पृ० १०, ११ । ४. विशेषके लिए देखिए, डा. सतीशचन्द्र विद्याभूषण, ए हिस्टरी ऑफ इण्डियन लॉजिक, पृ० ४० । ५. मनुस्मृति १२।१०६.१२।१११, ७१४३, २०११; चौखम्बा सं० सी०, वाराणसी। ६. प्रत्यक्षं चानुमानं च शास्त्रं विविधागमम् । त्रयं सुविदितं कार्य धर्मशुद्धिमभीप्सता ।।-वही, १२।१०५ । ७ भूतबली-पुष्पदन्त, षट्ख० ५।५।५१, सोलापुर संस्करण, सन् १९६५ ई० । ८. मुनि कन्हैयालाल; स्था० सू०, पृ० ३०९, ३१०; व्यावर संस्करण, वि० सं० २०१० । ९. मुनि कन्हैयालाल; भ० सू० ५।३।१९१-९२; धनपतसिंह, कलकत्ता । १०. मुनि कन्हैयालाल, अनु० सू० मूलसुत्ताणि, पृ० ५३९, व्यावर संस्करण, वि० सं० २०१० । -२४१ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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