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________________ करना आवश्यक है। उसके बिना वे न अपने खण्डनका परिहार या प्रतिवाद कर सकते हैं और न अपने दर्शनको उत्कृष्ट सिद्ध कर सकते हैं । न्यायदर्शनमें यद्यपि अपने ऊपर आनेवाले आक्रमणोंका परिहार करनेके लिए छल, जाति और निग्रहस्थानोंका कथन किया है। किन्तु ऐसे प्रयत्न सद्-सम्यक् नहीं कहे जा सकते। कोई भी प्रेक्षावान् असद् प्रयत्नों द्वारा अपने पक्षका समर्थन तथा परपक्षका निराकरण नहीं कर सकता । दर्शनका उद्देश्य जगत्के लोगोंका हित करना और उन्हें उचित मार्गपर लाना है। वितण्डावादसे उक्त दोनों बातें असम्भव है। जैन दर्शनका नयवाद विविध मतोंके एकान्तरूप अन्धकारको दूर करनेके लिए नहीं बुझने वाले विशाल गैसोंका काम देता है। मध्यस्थ एवं उपपत्तिचक्षः होकर उसपर विचार करें तो उसकी अनिवार्यता निश्चय ही स्वीकार्य होगी। वस्तु अनेकधर्मात्मक है और उसका पूरा ज्ञान हम इन्द्रियों या निरपेक्ष वचनों द्वारा नहीं कर सकते हैं । हाँ, नयोंसे एक-एक धर्मका बोध करते हुए उसके विवक्षित अनेक धर्मोंका ज्ञान कर सकते हैं । द्रव्यार्थिक नयसे विवक्षा करनेपर वस्तु नित्य है और पर्यायार्थिक नयसे कथन करनेपर वह अनित्य भी है । इसी प्रकार उसमें एक, अनेक, अभेद, भेद आदि विरोधी धर्मोकी व्यवस्था नयवादसे ही होती है । विवक्षित एवं अभिलषित अर्थकी प्राप्तिके लिए वक्ताकी जो वचनप्रवृत्ति या अभिलाषा होती है वही नय है । यह अर्थक्रियाथियोंकी अर्थक्रियाका सम्पादक है । जैन दर्शनमें नयवादका परिवार विशाल है । या यों कहना चाहिए कि जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नय है । आचार्य सिद्धसेनने सन्मतिसूत्रमें कहा है 'जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया।' जितना वचन व्यवहार है और वह जिस-जिस तरहसे हो सकता है वह सब नयवाद है । वचनमें एक साथ एक समयमें एक ही धर्मको प्रतिपादन करनेकी सामर्थ्य है, अनेक धर्मों या अर्थों के प्रतिपादनकी सामर्थ्य उसमें नहीं है । 'सकृदुच्चरितः शब्दः एकमेवार्थं गमयति'-एक बार बोला गया शब्द एक ही अर्थका बोध करा सकता है । इसीसे अनेक धर्मोकी पिण्डरूप वस्तु प्रमाणका ही विषय होती है, नयका नहीं। नयके भेद नयके मूल दो भेद हैं-१ द्रव्याथिक और २ पर्यायार्थिक । जो नय मात्र द्रव्यको ग्रहण करता है और पर्यायको सत्ताको गौण कर देता है वह द्रव्याथिक नय है तथा जो द्रव्यको गौण करके केवल पर्यायको विषय करता है वह पर्यायाथिक नय है। द्रव्याथिकके तीन भेद हैं-१ नैगम, २ संग्रह और ३ व्यवहार । पर्यायाथिक नयके चार भेद हैं-१ ऋजुसूत्र, २ शब्द, ३ समभिरूढ और ४ एवंभूत । द्रव्याथिकके तीन और पर्यायार्थिकके चार इन सात नयोंका निरूपग तत्त्वार्थसूत्रकारने निम्न सूत्र द्वारा किया है __'नेगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढवंभूता नयाः।' –त० सू० १-३३ । इनका विशेष विवेचन तत्त्वार्थसूत्रकी टीकाओं-सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदिमें तथा नयचक्र प्रभृति ग्रन्थों में किया गया है । विशेष जिज्ञासुओंको वहाँसे उनके स्वरूपादि ज्ञातव्य है । यहाँ स्मरणीय है कि आध्यात्मिक दृष्टिसे निश्चय और व्यवहार नयोंका भी जैन दर्शनमें प्रतिपादन उपलब्ध है । निश्चय और व्यवहारके भेदोंका भी विशद वर्णन किया गया है। इस तरह हम देखते हैं कि नय भी प्रमाणकी तरह वस्तुके बोधक है और इसलिए ज्ञापक तत्त्वके अन्तर्गत उनका कथन किया गया है। -२३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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