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________________ उसका अभाव करना है वहां उसका प्रत्यक्ष दर्शन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। जब हम भूतलमें घड़ेका अभाव करते हैं तो वहाँ पहले देखे गये घड़ेका स्मरण और भूतलका दर्शन होता है, तभी हम यह कहते हैं कि यहाँ घड़ा नहीं है । किन्तु तीनों (भूत, भविष्यत् और वर्तमान) कालों तथा तीनों (ऊर्व, मध्य, और अधो) लोकोंके अतीत, अनागत और वर्तमानकालीन अनन्त पुरुषोंमें सर्वज्ञता नहीं थी, नहीं है और न होगी, इस प्रकारका ज्ञान उसीको हो सकता है जिसने उन तमाम पुरुषोंका साक्षात्कार किया है। यदि किसीने किया है तो वही सर्वज हो जायगा। साथ ही सर्वज्ञताका स्मरण सर्वज्ञताके प्रत्यक्ष अनुभवके बिना संभव नहीं और जिन कालिक और त्रिलोकवर्ती अनन्त पुरुषों (आधार) में सर्वज्ञताका अभाव करना है उनका प्रत्यक्ष दर्शन भी संभव नहीं । ऐसी स्थितिमें अभावप्रमाण भी सर्वज्ञताका बाधक नहीं है। इस तरह जब कोई बाधक नहीं है तो कोई कारण नहीं कि सर्वज्ञताका सद्भाव सिद्ध न हो। निष्कर्ष यह है कि आत्मा 'ज्ञ'-ज्ञाता है और उसके ज्ञानस्वभावको ढंकनेवाले आवरण दूर होते हैं। अतः आवरणोंके विच्छिन्न हो जानेपर ज्ञस्वभाव आत्माके लिए फिर शेष जानने योग्य क्या रह जाता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । अप्राप्यकारी ज्ञानसे सकलार्थ विषयक ज्ञान होना अवश्यम्भावी है । इन्द्रियाँ और मन सकलार्थपरिज्ञानमें साधक न होकर बाधक हैं। वे जहाँ नहीं हैं और आवरणोंका पूर्णतः अभाव है वहाँ त्रैकालिक और त्रिलोकवर्ती यावज्ज्ञेयोंका साक्षात् ज्ञान होनेमें कोई बाधा नहीं है। आ. वीरसेन और आ. विद्यानन्द ने भी इसी आशयका एक महत्त्वपूर्ण श्लोक प्रस्तुत करके उसके द्वारा ज्ञस्वभाव आत्मामें सर्वज्ञताकी सम्भावना की है। वह श्लोक यह है ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने। दाह्यऽग्निर्दाहको न स्यादसति प्रतिबन्धने ।। -जयधवला पु० ६६, अष्टस. पृ० ५० । अग्निमें दाहकता हो और दाह्य-ईंधन सामने हो तथा बीचमें रुकावट न हो तो अग्नि अपने दाह्यको क्यों नहीं जलावेगी? ठीक उसी तरह आत्मा ज्ञ (ज्ञाता) हो, और ज्ञेय सामने हो तथा उनके बीच में कोई रुकावट न रहे तो ज्ञाता उन ज्ञेयोंको क्यों नहीं जानेगा? आवरणोंके अभाव में ज्ञस्वभाव आत्माके लिए आसन्नता और दूरता ये दोनों भी निरर्थक हो जाती हैं । उपसंहार : जैन दर्शनमें प्रत्येक आत्मामें आवरणों और दोषोंके अभावमें सर्वज्ञताका होना अनिवार्य माना गया है। वेदान्त दर्शनमें मान्य आत्माकी सर्वज्ञतासे जैन दर्शनकी सर्वज्ञतामें यह अन्तर है कि जैन दर्शनमें सर्वज्ञताको आवृत करनेवाले आवरण और दोष मिथ्या नहीं है, जब कि वेदान्त दर्शनमें अविद्याको मिथ्या कहा गया है। इसके अलावा जैन दर्शनको सर्वज्ञता जहाँ सादि-अनन्त है और प्रत्येक मुक्त आत्मामें वह पृथक्-पृथक् विद्यमान रहती है अतएव अनन्त सर्वज्ञ हैं, वहाँ वेदान्त में मुक्त-आत्माएँ अपने पृथक् अस्तित्वको न रखकर एक अद्वितीय सनातन ब्रह्ममें विलीन हो जाते हैं और उनकी सर्वज्ञता अन्तःकरणसंबन्ध तक रहती है, बादको वह नष्ट हो जाती है या ब्रह्ममें ही उसका समावेश हो जाता है। १. 'अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणत्वात्, सुखादिवत् ।'-सिद्धिवि० वृ० ८-६ तथा अष्ट० स० का० ५ । २. विशेषके लिए वीरसेनकी जयधवला (पृ० ६४ से ६६) द्रष्टव्य है। ३. विद्यानन्दके आप्तपरीक्षा, अष्टसहस्री आदि ग्रन्थ देखें। -२२४ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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