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________________ वेदान्त दर्शनमें सर्वज्ञता वेदान्त दर्शनका मन्तव्य है कि सर्वज्ञता अन्तःकरणनिष्ठ है और वह जीवन्मुक्त दशा तक रहती है। उसके बाद वह छूट जाती है। उस समय जीवात्मा अविद्यासे मुक्त होकर विद्यारूप शुद्ध सच्चिदानन्द ब्रह्म मय हो जाता है और सर्वज्ञता आत्मज्ञतामें विलीन हो जाती है। अथवा उसका अभाव हो जाता है। जैन दर्शनमें सर्वज्ञता-विषयक विस्तृत विमर्श : जैन दर्शनमें ज्ञानको आत्माका स्वरूप अथवा स्वाभाविक गुण माना गया है और उसे स्व-पर प्रकाशक स्वीकार किया गया है। यदि आत्माका स्वभाव ज्ञत्व (जानना) न हो तो वेदके द्वारा भी सूक्ष्मादि ज्ञेयोंका ज्ञान नहीं हो सकता । आचार्य अकलङ्कदेवने लिखा है कि ऐसा कोई ज्ञेय नहीं, जो ज्ञस्वभाव आत्माके द्वारा जाना न जाय । किसी विषयमें अज्ञताका होना ज्ञानावरण तथा मोहादि दोषोंका कार्य है । जब ज्ञानके प्रतिबन्धक ज्ञानावरण तथा मोहादि दोषोंका क्षय हो जाता है तो बिना रुकावटके समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान हुए बिना नहीं रह सकता। इसीको सर्वज्ञता कहा गया है। जैन मनीषियोंने प्रारम्भसे त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती अशेष पदार्थोके प्रत्यक्ष ज्ञानके अर्थ में इस सर्वज्ञताको पर्यवसित माना है। आगम-ग्रन्थों एवं तर्क-ग्रन्थों में हमें सर्वत्र सर्वज्ञताका प्रतिपादन मिलता है । षट्खण्डागमसूत्रोंमें कहा गया है कि 'केवली भगवान् समस्त लोकों, समस्त जीवों और अन्य समस्त पदार्थों को सर्वदा एक साथ जानते व देखते हैं। आचारांगसूत्रमें भी यही कथन किया गया है । महान् चिन्तक और लेखक कुन्दकुन्दने भी लिखा है कि 'आवरणोंके अभावसे उद्भूत केवलज्ञान वर्तमान, भूत, भविष्यत, सूक्ष्म, व्यवहित आदि सब तरहके ज्ञेयोंको पूर्णरूपमें युगपत् जानता है। जो त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती सम्पूर्ण पदार्थोंको नहीं जानता वह अनन्त पर्यायों वाले एक द्रव्यको भी पूर्णतया नहीं जान सकता और जो अनन्त पर्याय वाले एक द्रव्यको नहीं जानता वह समस्त द्रव्योंको कैसे एक साथ जान सकता है ? प्रसिद्ध विचारक भगवती आराधनाकार शिवार्य और आवश्यक नियुक्तिकार भद्र १. 'उपयोगो लक्षणम्'-तत्त्वार्थसूत्र २-८ । २. 'णाणं सपरपयासयं' ३. 'न खलु ज्ञस्वभावस्य कश्चिदगोचरोऽस्ति यन्न क्रमेत, तत्स्वभावान्तरप्रतिषेधात् ।'-अष्ट० श०, अष्ट० स० पृ० ४७ । ४. 'सयं भयवं उप्पण्णणाणदरिसी""सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सव्वं समं जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति' -षट्खं० पयदि० सू० ७८।। ५. 'से भगवं अरिहं जिणो केवली सव्वन्न सव्वभावदरिसी "सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाइं जाणमाणे पासमाणे एवं च विहरइ ।'-आचारांगसू० २-३ । ६. जं तक्कालियमिदरं जाणदि जगवं समतदो सव्वं । अत्थं विचित्तविसमं तं गाणं खाइयं भणियं ।। जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तेकालिगे तिहवणत्थे । णा, तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेकं वा । दव्वं अणंतप्पज्जयमेक्कमणंताणि दश्वजादाणि । ण विजाणदि जदि जुगवं कधं सो सव्वाणि जाणादि ।।-प्रवचनसा० १-४७,४८, ४९ । ७. पस्सदि जाणदि य तहा तिण्णि वि काले सपज्जए सब्वे । तह वा लोगमसेसं भयवं विगयमोहो ।।-भ० आ० गा० २१४१ । - २२१ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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