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________________ और शीघ्र मरण होनेवाला है तथा दूसरे संघमें जानेका समय नहीं है और न शक्ति है वह मुनि दूसरी अविचार-भक्त-प्रत्याख्यान - सल्लेखना लेता । इसके भी तीन भेद हैं :- १. निरुद्ध, २. निरुद्धतर और ३. परमनिरुद्ध | १. निरुद्ध - दूसरे संघ में जानेकी पैरों में सामर्थ्य न रहे, शरीर थक जाय अथवा घातक रोग, व्याधि या उपसर्गादि आ जायें और अपने संघमें ही रुक जाय तो उस हालत में मुनि इस समाधिमरणको ग्रहण करता है । इसलिए इसे निरुद्ध- अविचार - भक्तप्रत्याख्यान - सल्लेखना कहते हैं । यह दो प्रकारकी है - १. प्रकाश और २. अप्रकाश । लोकमें जिनका समाधिमरण विख्यात हो जाये, वह प्रकाश है तथा जिनका विख्यात न हो, वह अप्रकाश है । २. निरुद्धतर - सर्प, अग्नि, व्याघ्र, महिष, हाथी, रीछ, चोर, व्यन्तर, मूर्च्छा, दुष्ट पुरुषों आदि द्वारा मारणान्तिक आपत्ति आजानेपर आयुका अन्त जानकर निकटवर्ती आचार्यादिकके समीप अपनी निन्दा, गर्हा करता हुआ साधु शरीर त्याग करे तो उसे निरुद्धतर - अविचार - भक्तप्रत्याख्यान-समाधिमरण कहते हैं । ३. परमनिरुद्ध - सर्प, व्याघ्रादिके भीषण उपद्रवोंके आनेपर वाणी रुक जाय, बोल न निकल सके, ऐसे समय में मन में ही अरहन्तादि पंचपरमेष्ठियोंके प्रति अपनी आलोचना करता हुआ साधु शरीर त्यागे, तो उसे परमनिरुद्ध भक्तप्रत्याख्यान - सल्लेखना कहते हैं । सामान्य मरणकी अपेक्षा समाधिमरणकी श्र ेष्ठता : आचार्य शिवार्यने सतरह प्रकारके मरणोंका उल्लेख करके उनमें विशिष्ट पाँच तरहके मरणोंका वर्णन करते तीन मरणोंको प्रशंसनीय एवं श्रेष्ठ बतलाया है । वे तीन मरण ये हैं :- १. पण्डितपण्डितमरण, २. पण्डितमरण और ३. बालपण्डितमरण । उक्त मरणों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि चउदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली भगवान्‌का निर्वाण - गमन पण्डित पण्डितमरण' है, आचाराङ्ग - शास्त्रानुसार चारित्रके धारक साधु-मुनियोंका मरण 'पण्डितमरण' है, देशव्रती श्रावकका मरण 'बालपण्डितमरण' है, अविरत - सम्यग्दृष्टिका मरण 'बालमरण' और मिथ्यादृष्टिका मरण 'बालबालमरण' है । ऊपर जो भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन - इन तीन समाधिमरणोंका कथन किया गया है वह सब पण्डितमरणका कथन है । अर्थात् वे पण्डितमरणके भेद हैं । १. पंडिदपंडिद-मरणं पंडिदयं बाल पंडिदं चेव । बाल-मरणं चउत्थं पंचमयं बालबालं च ॥ -भ० आ० गा० २६ । २. पंडिदपंडिद-मरणं च पंडिदं बालपंडिदं चेव । एदाणि तिष्णि मरणाणि जिणा णिच्चं पसंसंति ॥ भ० आ० गा० २७ । ३. पंडिदपंडिदमरणे खीणकसाया मरंति केवलिणो । विरदाविरदा जीवा मरंति तदियेण मरणेण ॥ पाओपगमण-मरणं भत्तण्पण्णा य इंगिणी चेव । तिविहं पंडिदमरणं साहुस्स जहुत्तचरियस्स | अविरदसम्मादिट्ठी मरंति बालमरणे चउत्थम्मि | मिच्छादिट्ठी य पुणो पंचमए बालबालम्मि | भ. आ. २८, २९, ३० ॥ - २१३ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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