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________________ डाक्टर अम्बेदकरसे भेंटवार्तामें महत्त्वपूर्ण अनेकान्त-चर्चा १४ नवम्बर १९४८ को सिद्धार्थ कालेज बम्बईके प्रोफेसर और अनेक ग्रन्थोंके निर्माता सर्वतंत्रस्वतंत्र पं० माधवाचार्य विद्यामार्तण्डके साथ हमें डाक्टर अम्बेडकरसे, जो स्वतन्त्र भारतको विधान-मसविदा समितिके अध्यक्ष थे और जिन्हें स्वतन्त्र भारतके विधान-निर्माता होनेसे वर्तमान भारतमें 'मन' को संज्ञा दी जाती है तथा कानूनके विशेषज्ञ विद्वानोंमें सर्वोच्च एवं विख्यात विद्वान् माने जाते हैं, भेंट करनेका अवसर मिला था। डाक्टर सा० कानूनके पण्डित तो थे ही, दर्शनशास्त्रके भी विद्वान् थे, यह हमें तब पता चला, जब उनसे दार्शनिक चर्चा-वार्ता हुई। उन्होंने विभिन्न दर्शनोंका गहरा एवं तुलनात्मक अध्ययन किया है । बौद्धदर्शन और जैन दर्शनका भी अच्छा परिशीलन किया है। जब हम उनसे मिले तब हमारे हाथमें 'अनेकान्त' के प्रथम वर्षकी फाइल थी. जिसमें उक्त प्रोफेसर सा० का एक निबन्ध 'भारतीय दर्शनशास्त्र' शीर्षक छपा था और उसमें प्रोफेसर सा० ने जैन दर्शनके स्थादाद और अनेकान्त सिद्धान्त पर उत्तम विचार प्रकट किये हैं। डाक्टर सा० ने बड़े सौजन्यसे हमसे कुछ प्रश्न किये और जिनका उत्तर हमने दिया । यह प्रश्नोत्तर महत्त्वका है । अतः यहाँ दे रहे हैं। डॉक्टर सा०-आपके इस अखबारका नाम 'अनेकान्त' क्यों है ? मैं-'अनेकान्त' जैन दर्शनका एक प्रमुख सिद्धान्त है, जिसका अर्थ नानाधर्मात्मक वस्तु है । अनेकका अर्थ नाना है और अन्तका अर्थ धर्म है और इसलिए दोनोंका सम्मिलित अर्थ नानाधर्मात्मक वस्तु है। जैन दर्शनमें विश्वकी सभी वस्तुएँ (पदार्थ) नानाधर्मात्मक प्रतिपादित है । एक घड़ेको लीजिए । वह मत्तिका (मिट्टी) की अपेक्षा शाश्वत (नित्य, एक, अभेदरूप) है-उसका उस अपेक्षासे न नाश होता है और न उत्पाद होता है। किन्तु उसको कपालादि अवस्याओंकी अपेक्षासे वह अशाश्वत (अनित्य, अ भेदरूप) है-उसका उन अवस्थाओंकी अपेक्षासे नाश भी होता है, उत्पाद भी होता है । इस तरह घड़ा शाश्वत-अशाश्वत (नित्यानित्य), एकानेक और भेदाभेदरूप होनेसे अनेकान्तात्मक है । इसी प्रकार सभी वस्तुएँ विधि-प्रतिषेधरूप उभयात्मक होनेसे अनेकान्तात्मक हैं । एक सरल उदाहरण और दे रहा हूँ । जिसे हम लोग डाक्टर या वकील कहकर सम्बोधित करते हैं उसे उनका पुत्र 'पिताजी' कहकर पुकारता है और उनके पिताजी उसे 'बेटा' कहकर बुलाते हैं। इसी तरह भतीजा 'चाचा' और चारा 'भतोजा' तथा भानजा 'मामा' और मामा 'भानजा' कहकर बुलाते हैं। यह सब व्यवहार या सम्बन्ध डाक्टर या वकीलमें एक साथ एक कालमें होते या हो सकते हैं, जब जिसकी विवक्षा होगी, तब। हाँ, यह हो सकता है कि जब जिसकी विवक्षा होगी वह मुख्य और शेष सभी व्यवहार या सम्बन्ध या धर्म गौण हो जायेंगे लोप या अभाव नहीं होगा। यही विश्वकी सभी वस्तुओंके विषयमें है। वस्तुके इस नानाधर्मात्मक स्वभावरूप अनेकान्तसिद्धान्तका सूचन या ज्ञापन करने के लिए इस अखबारका नाम 'अनेकान्त' रखा गया है। -२०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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