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________________ संजयके अनिश्चिततावाद और जैनदर्शनके स्याद्वादमें अन्तरं ऊपर राहुलजीने संजयकी चतुर्भङ्गी इस प्रकार बतलाई है१, है ?-नहीं कह सकता । २. नहीं है ?-नहीं कह सकता। ३. है भी नहीं भी ?-नहीं कह सकता । ४. न है और न नहीं है ?-नहीं कह सकता। संजयने सभी परोक्ष वस्तुओंके बारेमें 'नहीं कह सकता' जवाब दिया है और इसलिये उसे अनिश्चिततावादी कहा गया है। जैनोंकी जो सप्तभंगी है वह इस प्रकार है १. वस्तु है ?-कथञ्चित् (अपनी द्रव्यादि चार अपेक्षाओंसे) वस्तु है ही-स्यादस्त्येव घटादिवस्तु । २. वस्तु नहीं है ?--कथञ्चित् (परद्रव्यादि चार अपेक्षाओंसे) वस्तु नहीं ही है-स्यान्नास्त्येव घटादि वस्तु । ३. वस्तु है, नहीं (उभय) है ?-कथञ्चित् (क्रमसे अपित दोनों-स्वद्रव्यादि और परद्रव्यादि चार अपेक्षाओंसे) वस्तु है, नहीं (उभय) ही है-स्यादस्ति नास्त्येव घटादि वस्तु । ४. वस्तु अवक्तव्य है ?-कथंचित् (एक साथ विवक्षित स्वद्रव्यादि और परद्रव्यादि दोनों अपेक्षाओंसे कही न जा सकनेसे) वस्तु अवक्तव्य ही है-स्यादवक्तव्यमेव घटादिवस्तु । ५. वस्तु 'है-अवक्तव्य है' ?-कथंचित् (स्वद्रव्यादिसे और एक साथ विवक्षित दोनों स्व-परद्रव्यादिकी अपेक्षाओंसे कही न जा सकनेसे) वस्तु 'है-अवक्तव्य ही है'-स्यादस्त्यवक्तव्यमेव घटादिवस्तु । ६. वस्तु 'नहीं-अवक्तव्य है' ?-कथंचित् (पर द्रव्यादिसे और एक साथ विवक्षित दोनों स्व-पर द्रव्यादिको अपेक्षासे कही न जा सकनेसे) वस्तु 'नहीं-अवक्तव्य ही है'-स्यान्नास्त्यवक्तव्यमेब घटादिवस्तु। ७. वस्तु है-नहीं-अवक्तव्य है' ?-कथंचित (क्रमसे अर्पित स्व-पर द्रव्यादिसे और एक साथ अर्पित स्वपरद्रव्यादिकी अपेक्षासे कही न जा सकनेसे) वस्तु है, नहीं और अवक्तव्य ही है'-स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यमेव घटादि वस्तु । जैनोंकी इस सप्तभङ्गीमें पहला, दूसरा और चौथा ये तीन भङ्ग तो मौलिक हैं और तीसरा, पाँचवाँ. और छठा द्विसंयोगी तथा सातवाँ त्रिसंयोगी भङ्ग है और इस तरह अन्य चार भङ्ग मूलभूत तीन भङ्गोंके संयोगज भङ्ग हैं । जैसे नमक, मिर्च और खटाई इन तीनके संयोगज स्वाद चार ही बन सकते हैं-नमक-मिर्च, नमक-खटाई, मिर्च-खटाई और नमक-मिर्च-खटाई-इनसे ज्यादा या कम नहीं। इन संयोगी चार स्वादोंमें मूल तीन स्वादोंको और मिला देनेसे कुल स्वाद सात ही बनते हैं। यही सप्तभङ्गोंकी बात है । वस्तु में यों तो अनन्तधर्म हैं, परन्तु प्रत्येक धर्मको लेकर विधि-निषेधकी अपेक्षासे सात ही धर्म व्यवस्थित हैं-सत्त्वधर्म, असत्त्वधर्म, सत्त्वासत्त्वोभय, अवक्तव्यत्व, सत्त्वावक्तव्यत्व, असत्त्वावक्तव्यत्व और सत्त्वासत्त्वावक्तव्यत्व । इन सातसे न कम हैं और न ज्यादा । अतएव शङ्काकारोंको सात ही प्रकारके सन्देह, सात ही प्रकारकी जिज्ञासाएँ, सात ही प्रकारके प्रश्न होते हैं और इसलिये उनके उत्तरवाक्य सात ही होते हैं, जिन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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