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________________ भगवान् महावीरका अध्यात्मिक मार्ग धर्मका ह्रास, समाजका ह्रास, देशका ह्रास जब चरम सीमाको प्राप्त हो जाता उस समय किसी अनोखे महापुरुषका अवतार - जन्म - प्रादुर्भाव होता है और वह अपने असाधारण प्रभावसे उस ह्रासको दूर करनेमें समर्थ होता है । वास्तवमें उस पुरुषमें महापुरुषत्व भी इसी समय प्रकट होता है और अनेकानेक शक्तियों तथा परमोच्च गुणोंका पूर्ण विकास भी तभी होता है । वह अपने समूचे जीवनको लोक - हित में समर्पित कर देता है । भगवान् महावीर ऐसे ही महापुरुषोंमें हैं । उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक क्षणको लोक-हित में लगाया था । विश्वको आत्मकल्याणका सन्देश दिया था । उस समय विविध मतोंकी असमञ्जसता तीव्र गति से चल रही थी । धर्मका स्थान सम्प्रदाय तथा जातिने घेर लिया था । एक सम्प्रदाय एवं जाति दूसरे सम्प्रदाय एवं जातिको अपना शत्रु समझती थी । आजसे भी अधिकतम साम्प्रदायिकताकी तीव्र अग्नि उस समय धधक रही थी । दार्शनिक सिद्धान्तोंसे स्पष्ट मालूम होता है कि बौद्ध और ब्राह्मण ( याज्ञिक) आपस में एक दूसरेको अपना लक्ष्य (वेध्य-भक्ष्य ) समझते थे । आजके हिन्दू और मुसलमानों जैसी स्थिति थी । याज्ञिक यज्ञोंमें निरपराध पशुओंके हवनको धर्म बताते थे उनके विरुद्ध बौद्ध याज्ञिक हिंसाको अधर्म और पापकृत्य बताते थे । । युक्तिवादको लेकर याज्ञिक कहते कि : " वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, आत्मनो नित्यत्वात् " वेदविहित हिंसा हिंसा ( जीवघात) नहीं है, क्योंकि आत्मा नित्य है, अमर है, उसका विनाश नहीं होता । भौतिक शरीर, इन्द्रिय, प्राण आदिका ही विनाश होता है । इसकी पुष्टि करनेके लिये वे एड़ीसे चोटी तक पसीना बहाते थे । उधर बौद्ध भी युक्तिवाद कम नहीं थे । वे भी "सर्वं क्षणिकं सत्वात्" समस्त चीजें नाशशील हैं क्योंकि सत् हैं - इस स्वकल्पित सिद्धान्तकी भित्तिपर “वैदिकी हिंसा हिंसा अस्त्येव आत्मनोऽनित्यत्वात्" 'वेद में कही हिंसा जीवात ही है क्योंकि आत्मा अनित्य है, मरती है, उसका विनाश होता है' इस सिद्धान्तको झट रचकर उनका खंडन कर देते थे । यही कारण है कि याज्ञिकोंको बौद्धोंके प्रति प्रतिहिंसाके भावोंको लेकर उनके पराजित करने के लिये छल, जाति, निग्रहस्थानोंकी सृष्टि करनी पड़ी, फिर भी वे इस दिशा में असफल रहे । भगवान महावीर ऐसी-ऐसी अनेकों विषम स्थितियों, उलझनोंको तीस वर्षकी आयु तक अपनी चर्मचक्षुओं और ज्ञानचक्षुओंसे देखते-देखते ऊब गये, उनकी आत्मा तिलमिला उठी, अब वे इन विषमताओं, अन्यायों, अत्याचारोंको नहीं सह सके । फलतः संसारके समस्त सुखोंपर लात मार दी, न विवाह किया, न राज्य किया और न साम्राज्यके ऐश्वर्यको भोगा । ठीक है लोकहितकी भावना में सने हुए पुरुषको इन्द्रिय सुख की बातें कैसे सुहा सकती है। सुखको भोगना या जनताके कष्टोंको दूर करना दोनों में से एक ही सकता है। २१ Jain Education International १६१ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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