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________________ भयंकर आपदाओं से भी नहीं घबड़ाते थे, किन्तु उनका साहसपूर्वक सामना करते थे । अतः उनके साथी उन्हें वीर और अतिवीर भी कहते थे । महावीरका वैराग्य महावीर इस तरह बाल्यावस्थाको अतिक्रान्त कर धीरे-धीरे कुमारावस्थाको प्राप्त हुए और कुमारावस्थाको भी छोड़कर वे पूरे ३० वर्ष के युवा हो गये । अब उनके माता-पिताने उनके सामने विवाहका प्रस्ताव रखा। किंतु महावीर तो महावीर ही थे । उस समय जनसाधारणकी जो दुर्दशा थी उसे देखकर उन्हें असह्य पीड़ा हो रही थी। उस समयकी अज्ञानमय स्थितिको देखकर उनकी आत्मा सिहर उठी थी और हृदय दयासे भर आया था। अतएव उनके हृदय में पूर्णरूपसे वैराग्य समा चुका था । उन्होंने सोचा - ' इस समय देशकी स्थिति धार्मिक दृष्टिसे बड़ी खराब है, धर्मके नामपर अधर्म हो रहा है । यज्ञोंमें पशुओंकी बलि दी जा रही है और उसे धर्म कहा जा रहा है । कहीं अश्वमेध हो रहा है तो कहीं अजमेध हो रहा है । पशुओं की तो बात ही क्या, नरों (मनुष्यों) का भी यज्ञ करनेके लिए, वेदोंके सूक्त बताकर जनताको प्रोत्साहित किया जाता है और कितने ही लोग नरमेध यज्ञ भी कर रहे हैं । इस तरह जहाँ देखो वहाँ हिंसाका बोल-बाला और भीषणकाण्ड मचा हुआ है। सारी पृथ्वी खून से लथपथ हो रही है । इसके अतिरिक्त स्त्री, शूद्र और पतितजनोंके साथ उस समय जो दुर्व्यवहार हो रहा है वह भी चरमसीमा पर पहुँच चुका है । स्त्री और शूद्र वेदादि शास्त्र नहीं पढ़ सकते । 'स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्' जैसे निषेधपरक वेदादिवाक्योंकी दुहाई दी जाती है और इस तरह उन्हें ज्ञानसे वंचित रखा जा रहा है । शूद्रके साथ संभाषण, उसका अन्नभक्षण और उसके साथ सभी प्रकारका व्यवहार बन्द कर रखा है और यदि कोई करता है तो उसे कड़े से कड़ा दण्ड भोगना पड़ता है । पतितोंकी तो हालत ही मत पूछिये । यदि किसी से अज्ञानतावश या भूलसे कोई अपराध बन गया तो उसे जाति, धर्म और तमाम उत्तम बातोंसे च्युत करके कृत कर दिया जाता है - उनके उद्धारका कोई रास्ता ही नहीं है । यह भी नहीं सोचा जाता कि मनुष्य मनुष्य है, देवता नहीं । उससे गलतियाँ हो सकती हैं और उनका सुधार भी हो सकता है । महावीर इस अज्ञानमय स्थितिको देखकर खिन्न हो उठे, उनकी आत्मा सिहर उठी और हृदय दयासे भर आया । वे सोचने लगे कि 'यदि यह स्थिति कुछ समय और रही तो अहिंसक और आध्यात्मिक ऋषियोंकी यह पवित्र भारतभूमि नरककुण्ड बन जायगी और मानव दानव हो जायगा । जिस भारतभूमिके मस्तकको ऋषभदेव, राम और अरिष्टनेमि - जैसे अहिंसक महापुरुषोंने ऊँचा किया और अपने कार्योंसे उसे पावन, बनाया उसके माथेपर हिंसाका वह भीषण कलंक लगेगा जो धुल न सकेगा । इस हिंसा और जड़ताको शीघ्र ही दूर करना चाहिए। यद्यपि राजकीय दण्ड विधान - आदेश से यह बहुत कुछ दूर हो सकती है, पर उसका असर लोगोंके शरीरपर ही पड़ेगा - हृदय एवं आत्मा पर नहीं । आत्मा पर असर डालने के लिए तो अन्दरकी आवाज - उपदेश ही होना चाहिए और वह उपदेश पूर्ण सफल एवं कल्याणप्रद तभी हो सकता है जब मैं स्वयं पूर्ण अहिंसाकी प्रतिष्ठा कर लूँ । इसलिए अब मेरा घरमें रहना किसी भी प्रकार उचित नहीं है । घर में रहकर सुखोपभोग करना और अहिंसाकी पूर्ण साधना करना दोनों बातें सम्भव नहीं हैं ।' यह सोचकर उन्होंने घर छोड़नेका निश्चय कर लिया । उनके इस निश्चयको जानकर माता त्रिशला, पिता सिद्धार्थ और सभी प्रियजन अवाक् रह गये, परन्तु उनकी दृढ़ताको देखकर उन्हें संसारके कल्याणके मार्ग से रोकना उचित नहीं समझा और सबने उन्हें उसके लिए अनुमति दे दी । संसार - भीरु सभ्यजनों ने भी उनके इस लोकोत्तर कार्यकी प्रशंसा की और गुणानुवाद किया । Jain Education International = १५१ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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