SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वहाँ फुलों, मालाओं, खीलों और पैसोंका ढेर लग गया है। किसीने यह नहीं विचार किया कि यहाँ केवल पत्थर पड़े हैं, किसी देवताकी मूर्ति नहीं हैं तो फिर फूल आदि क्यों चढ़ाये जायें ? इसीको गतानुगतिकता अथवा अन्धानुकरण कहते हैं । जैन-दर्शन कहता है कि ऐसी गतानुगतिकतासे कोई लाभ नहीं होता, प्रत्युत वह अज्ञानको बढ़ाती है । अतः धर्मके सम्बन्धमें परीक्षा-सिद्धान्त आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । जैनधर्ममें जहाँ सम्यक्त्वके आठ अंगोंका वर्णन किया गया है वहाँ उनमें एक 'अमूढदृष्टि' अङ्ग भी बतलाया गया है । यह 'अमूढ़दृष्टि' अंग परीक्षा-सिद्धांतको छोड़कर दूसरी चीज नहीं है। सत्यके खोजीकी दृष्टि निश्चय ही अमूढा (मूढ़ा-अन्धी नहीं-विवेकयुक्त) होना चाहिए। उसके बिना वह सत्यकी खोज सही सही नहीं कर सकता। जैन दर्शनके इस अमूढदष्टि बनाम परीक्षण-सिद्धांतके आधारपर जैन चिन्तकोंने यहाँ तक घोषणा की है कि देव (आप्त) को भी उसकी परीक्षा करके अपना उपास्य मानो । आ० हरिभद्र सूरिने लिखा है पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। 'महावीरमें मेरा अनुराग नहीं है और कपिलादिकोंमें द्वेष नहीं है । किन्तु जिसकी बात युक्तिपूर्ण है वह ग्राह्य है।' स्वामी समन्तभद्राचार्य ने 'आप्तमीमांसा' नामका एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ही इसी विषयपर लिखा है, जिसमें उन्होंने भगवान महावीरकी परीक्षा की है और परीक्षाके उपरान्त उन्हें उनमें परमात्माके योग्य गुणोंको पाकर 'आप्त' स्वीकार किया है । साथ ही उनके वचनों (तत्त्वोपदेशों-स्याद्वाद) की भी परीक्षा की है। आचार्य विद्यानन्द आदि उत्तरकालीन जैन तर्कलेखकोंने भी 'आप्तपरीक्षा' जैसे परीक्षा-ग्रन्थोंका निर्माण करके परीक्षण-सिद्धान्तको उद्दीपित किया है। वस्तुतः सत्यका ग्रहण श्रद्धासे नहीं, परीक्षासे होता है। उसके बिना अन्य उपाय नहीं है । जिस परीक्षा-सिद्धांतको जैन विचारकोंने हजारों वर्ष पूर्व जन्म दिया उसीको आज समूची दुनिया स्वीकार करने लगी है। इतना ही नहीं, अपनी बातकी प्रामाणिकताके लिए उसे सर्वोच्च कसौटी माना जाने लगा है और उसकी आवश्यकता मानी जाती है। वह विज्ञान (Science) के नामसे सबकी जिह्वाओंपर है । इस विज्ञानके बल पर जहाँ भौतिक प्रयोग सत्य सिद्ध किये जा रहे हैं वहाँ प्रायः सभी मत वाले अपने सिद्धांत भी सिद्ध करनेको उद्यत हैं। जैन धर्मका 'अमूढदृष्टि' सिद्धान्त ऐसा सिद्धान्त है कि हम न धोखा खा सकते हैं और न अविवेकी एवं अन्धश्रद्धाल बन सकते हैं। अतः इस सिद्धान्तका पालन प्रत्येकके लिए सुखद है। -१४९ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy