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________________ जैनधर्म और दीक्षा भारतकी संस्कृति और सभ्यता बहुत प्राचीन है। यहाँ समय-समयपर अनेक महापुरुषोंने जन्म लिया और विश्वको नोति एवं कल्याणका मार्ग प्रदर्शित किया है। भगवान् ऋषभदेव इन्ही महापुरुषोंमेंसे एक और प्रथम महापुरुष हैं, जिन्होंने इस विकसित युगके आदिमें नीति व स्वपर-कल्याणका संसारको पथ प्रदर्शित किया । श्रीमद्भागवतमें इनका उल्लेख करते हुए लिखा है 'जब ब्रह्माने देखा कि मनुष्य-संख्या नहीं बढ़ी तो उसने स्वयम्भू मनु और सत्यरूपाको उत्पन्न किया। उनके प्रियव्रत नामका पुत्र हआ। प्रियव्रतके अनीध्र, अनीध्रके नाभि और नाभि तथा मरुदेवीके ऋषभदेव हए । ऋषभदेवने इन्द्रके द्वारा दी गई जयन्ती नामकी भार्यामें सौ पुत्र उत्पन्न किये और बड़े पुत्र भरतका राज्याभिषेक करके संन्यास ले लिया। उस समय उनके पास केवल शरीर था और वे दिगम्बर वेषमें नग्न विचरण करते थे। मौनसे रहते थे । कोई डराये, मारे, ऊपर थके, पत्थर फेंके, मत्र-विष्ठा फेंके तो इस सबकी ओर ध्यान नहीं देते थे। इस प्रकार कैवल्यपति भगवान् ऋषभदेव निरन्तर परम आनन्दका अनुभव करते हुए विचरते थे। जैन वाङ्मयमें प्रायः इसी प्रकारका वर्णन है । कहा गया है कि भगवान् ऋषभदेव युगके प्रथम प्रजापति और प्रथम संन्यासमार्ग प्रवर्तक थे। उन्होंने ही सबसे पहले लोगोंको खेती करना, व्यापार करना, तलवार चलाना, लिखना-पढ़ना आदि सिखाया था और बादको स्वयं प्रबुद्ध होकर संसारका त्याग करके संन्यास लिया था तथा जगतको आत्मकल्याणका मार्ग बताकर ब्रह्मपद (अपार शान्तिके आगार निर्वाण) को प्राप्त किया था । इन दोनों वर्णनोंसे दो बातें ज्ञातव्य हैं। एक तो यह कि भ० ऋषभदेव भारतीय संस्कृति एवं सभ्यताके आद्य प्रवर्तक हैं। दूसरी यह कि उन्होंने आत्मिक शान्तिको प्राप्त करनेके लिए राज-पाट आदि समस्त भौतिक वैभवका त्यागकर और शान्तिके एकमात्र उपाय संन्यास-दैगम्बरी दीक्षाको अपनाया था। इससे यह ज्ञात होता है कि जैनधर्ममें प्रारम्भसे दीक्षाका महत्त्व एवं विशिष्ट स्थान है। एक बात और है। जैनधर्म आत्माकी पवित्रताकी शिक्षा देता है। शिक्षा ही नहीं, बल्कि उसके आचरणपर भी वह पूरा जोर एवं भार देता है और ये दोनों चीजें बिना सबको छोड़े एवं दिगम्बरी दीक्षा लिये प्राप्त नहीं हो सकतीं। अतः आत्माकी पवित्रताके लिये दीक्षाका ग्रहण आवश्यकीय है। यद्यपि संसारके विविध प्रलोभनोंमें रहते हुए आत्माको पवित्र बनाना तथा इन्द्रियों व मन और शरीरको अपने काबूमें रखना बड़ा कठिन है । किन्तु इन कठिनाइयोंपर विजय पाना और समस्त विकारोंको दूर करके आत्माको पवित्र बनाना असंभव नहीं है। जो विशिष्ट आत्माएँ उनपर विजय पा लेती हैं उन्हीं १. पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैनधर्म, पृ० ५। २. स्वामी समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्रगत ऋषभजिनस्तोत्र, श्लोक २, ३, ४ । -- १४३ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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