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________________ अशुभ क्रियाओंसे निवृत्त होना और शुभ क्रियाओंमें प्रवृत्ति करना व्यवहारचारित्र है । यह व्यवहारचारित्र तेरह प्रकारका है-५ व्रत. ५ समिति और ३ गप्ति । रत्नत्रयपूजामें इसी त्रयोदशाँग सम्यकचारित्रकी पूजा निहित है। पं० आशाधारजीने भी "अशुभ-कर्मणः निवृत्तिः शुभकर्मणि प्रवृत्तिः" को व्यवहारचारित्र या व्रत बतलाया है । इस व्यवहारचारित्रका अवलम्बन लेकर ही उत्तरोत्तर आत्मविकास करता हआ आत्मसाधक बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग क्रियाभोंका निरोधकर अपने आपमें स्थिर हो जाने रूप परमोदासीनतात्मक परमोत्कृष्ट (निश्चय) चारित्रको प्राप्त करता है। आचार्य स्वामी समन्तभद्र ने लिखा है कि, “रागद्वेष-निवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः" रागादिकी निवृत्ति के लिये साधु हिंसादिनिवृत्तिलक्षण व्यवहारचारित्रका आचरण करता है। अतः स्पष्ट है कि निश्चयचारित्रको प्राप्त करनेके लिये व्यवहारचारित्र पालन करना आवश्यक एवं अनिवार्य है। यह व्यवहारचारित्र सब प्रकारसे मीठा है और तत्काल आनन्द देने वाला है। विषयानुरागी जीवोंने इन्द्रिय-विषयमें ही आनन्द मान रखा है। एक कविने कहा है कि"अविदितपरमानन्दो जनो वदति विषयमेव रमणीयं । तिलतैलमेव मिष्टं येन न दृष्टं घृतं क्वापि ॥" ____अर्थात् जिसने कभी घीको नहीं खाया वह पुरुष तेलको ही मीठा बतलाता है । इसी प्रकार संसारी प्राणीने मोक्षानन्दका कभी अनुभव नहीं किया है इसलिये वह विषयजन्य सुखको ही सुख, आनन्द समझता है। वास्तवमें हमें इन्द्रियाँ इसलिये प्राप्त हुई हैं कि हम अनिष्टसे बचे रहें । स्पर्शन इन्द्रिय कोमल शरीर वाले जीवोंकी रक्षाके लिये है। एकेन्द्रियादि जीवोंका स्पर्श होते ही तुरन्त उनकी रक्षाके भाव हो जाने चाहिये । रसना इन्द्रिय भी अनिष्ट, अनुपसेव्य, अभक्ष्य खाद्योंसे बचनेके लिये है । श्रोत्र इन्द्रिय शास्त्रश्रवण, जिनगुणश्रवण करनेके लिये है। चक्षुरिन्द्रिय देवदर्शन आदिके लिये है । घ्राणेन्द्रिय भी जीवरक्षाके लिये है। मन, आत्मचिन्तन, जिनगुणचिन्तन, दूसरोंका भला विचारना आदिके लिये है। किन्तु हम लोगोंने इन्द्रियोंका दुरुपयोग कर रखा है। कहा है : भोगा न भुक्ताः वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥ अर्थात् भोगोंको हमने नहीं भोगा, किन्तु भोगोंने ही हमें भोग लिया, मनुष्यपर्यायको पाकर हम तपश्चरण करनेके लिये आये थे, किन्तु विषयोंमें फंसकर तपको नहीं कर सके और विषयोंने ही हमें संतप्त कर दिया। काल नहीं बीता, सारी ही सारी उम्र बीत गयी। काल पूरा नहीं हो पाता, पर हम पूरे हो जाते हैं अर्थात हम व्यर्थके झगड़े-टंटोंमें अपना समस्त जीवन व्यतीत कर देते हैं। हमें जो समय प्राप्त था, उसका उपयोग नहीं करते हैं । चौथे पादमें कवि कहता है कि हम बुड्ढे हो गये, पर हमारी तृष्णा बुड्ढी नहीं हुई। गरज़ यह है कि हम विषयोंमें लिप्त होकर अपने आपको बिलकुल भूल जाते हैं, आत्मकल्याणकी ओर कुछ भी ध्यान नहीं देते हैं । अतः आत्मकल्याणार्थियोंको उचित है कि वे व्यवहारचारित्रका ठीक-ठीक आचरणकर अनन्तानन्त गुणोंके भण्डार चिदानन्द स्वरूप शुद्धात्माकी प्राप्ति करें। इससे स्पष्ट है कि जैन दृष्टि में चारित्रका कितना महत्त्व है। -१३९ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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