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________________ पुण्य और पापका शास्त्रीय दृष्टिकोण पूर्व वृत्त ___ 'सम्यग्दृष्टिके पुण्य और पाप दोनों हेय हैं' शीर्षक एक लेखमें' मैंने बृहद्रव्यसंग्रहके संस्कृत-टीकाकार ब्रह्मदेवके उद्धरणपूर्वक यह बताया है कि सम्यग्दृष्टिके पुण्य हेय है-उपादेय नहीं है और संस्कृत-टीकाकारकी सोदाहरण युक्ति द्वारा स्पष्ट किया है कि सम्यग्दृष्टि निज शुद्ध आत्माकी ही भावना करता है । परन्तु चारित्रमोहके उदयसे यदि उस शुद्ध आत्म-भावनामें असमर्थ रहता है तो निर्दोष परमात्मस्वरूप अरहंतादि पंचपरमेष्ठियोंकी परमात्मपदकी प्राप्ति और विषय-कषायोंको दूर करनेके लिए दान, पूजा आदिसे अथवा ति आदिसे परम भक्ति करता है। इससे उस सम्यग्दृष्टि जीवके भोगोंकी आकांक्षा आदि निदानरहित परिणाम उत्पन्न होता है । उससे उसके बिना चाहे विशिष्ट पुण्यका आस्रव होता है। जैसे किसान चावलोंकी प्राप्ति के लिए खेती करता है, पर पलाल उसे अनचाहे मिल जाता है। पुण्यका फल वैभव (इन्द्रादिपद) आदि मिलनेपर वह (सम्यग्दृष्टि) उसमें आसक्त या मोहित नहीं होता। इस क्रमसे वह आत्मगुणोंका विकास करता हुआ अन्तमें जिनदीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त करता है। ___इस लेखमें हमने अपनी ओरसे कुछ न लिखकर केवल ब्रह्मदेवका उद्धरण और उसके अनुवादक पं० अजितकुमारजी शास्त्रीका हिन्दी अनुवाद दिया था। परन्तु उक्त पण्डितजीने 'जैनगजट' वर्ष ५१, अंक ५० के सम्पादकीयमें 'त्याज्य और ग्राह्य' शीर्षकके अन्तर्गत 'भ्रान्ति-निरास' उपशीर्षकसे एक टिप्पणी दी है और उसमें हमें अपने लेखका स्पष्ट अभिप्राय जनताको समझानेके लिए पुण्य-विषयक विवेचन शास्त्रीय साक्षीसे करनेकी प्रेरणा की है। अतः इस लेख द्वारा हम पुण्य और पापका शास्त्रीय दृष्टिकोणसे विचार करेंगे। पुण्य और पाप दिगम्बर परम्परामें प्राचीन आचार्योंमें आचार्य कुन्दकुन्द और उनके बाद आचार्य गृद्ध पिच्छका सर्वोपरि स्थान है तथा उनके ग्रन्थोंको निर्विवादरूपमें प्रमाण माना जाता है । आ० कुन्दकुन्दने पंचत्थियसंग्रह (पंचास्तिक-संग्रह), पवयणसार (प्रवचनसार), णियमसार (नियमसार), अट्ठपाहुड (अष्टप्राभृत), समयसार आदि मूर्द्धन्य ग्रंथोंकी रचना की है तथा आ० गृद्धपिच्छका एकमात्र आद्य संस्कृत-गद्यसूत्र-ग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' उपलब्ध है । हमें देखना है कि इन ग्रंथोंमें पुण्य और पापका वर्णन मिलता है या नहीं ? यदि मिलता है तो उन्होंने पुण्य और पापका निरूपण किस प्रकार किया है ? सबसे पहले हम कुन्दकुन्दका 'पंचत्थियसंगह' लेते हैं । इसमें पुण्य और पापको पदार्थ माना गया है और उनकी नौ पदार्थों में परिगणना की गई है। जैसा कि उसकी निम्न गाथासे प्रकट है जीवाजीवा भावा पुण्यं पावं च आसवं तेसि । संवर-णिज्जर-बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ।। १. जैन सन्देश, वर्ष ३०, अंक २४, जैन संघ, मथुरा। २. पंचत्थियसंगह, गा० १०८। -१२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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