SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं थे, परन्तु वहाँ आवश्यक थे । प्रकृत ग्रन्थको समझने में सरलता हो, इस दृष्टिसे मूल ग्रन्थ में उत्थानिकावाक्य, विषय - विभाजन आदि महत्त्वपूर्ण कार्य भी किया गया है । ग्रन्थ में आये अवतरणवाक्योंके मूल स्थलों को खोजकर उन्हें कोष्टकमें दे दिया गया है । हिन्दी अनुवादको मूलानुगामी और सरल बनानेका पूरा प्रयत्न किया गया है । इस ग्रन्थका प्राक्कथन समाजके ख्यातिप्राप्त विद्वान् पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने लिखा है । यह प्राक्कथन मूल ग्रन्थपर स्वर्णकलशकी भाँति सुशोभित हो रहा है । प्राक्कथन के प्रारम्भ में वैदिक दर्शनोंकी उत्पत्तिकी चर्चा की गयी है । इसके बाद भारतीय दर्शनोंमें सर्वज्ञताको लेकर जो मान्यताएँ हैं उनपर विचार किया गया है। वैदिक दर्शनोंमें मीमांसकदर्शन सर्वज्ञकी सत्ताको स्वीकार नहीं करता है । शेष वैदिक दर्शन सर्वज्ञकी सत्ताको स्वीकार करते हैं । तथा श्रमणपरम्पराके अनुयायी सांख्य, बौद्ध और जैन सर्वज्ञताको स्वीकरते हैं । ये तीनों दर्शन अनीश्वरवादी हैं किन्तु वैदिक दर्शनोंमें मीमांसकके अतिरिक्त शेष सब ईश्वरवादी हैं । अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैनदर्शन में सर्वज्ञतापर सर्वाधिक जोर दिया गया है और प्राक्कथन में इस बातको स्पष्ट किया गया है कि जैनदर्शनमें सर्वज्ञतापर इतना जोर देनेका कारण क्या है । यहाँ यह भी बतलाया गया है कि दार्शनिक दृष्टिसे सर्वज्ञकी चर्चाका अवतरण सर्वप्रथम स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमांसाकी रचना करके किया है। प्राक्कथन के अन्तमें लेखकने कोठियाजीको इस महत्त्वपूर्ण कृतिके लिए हृदयसे शुभाशीर्वाद दिया है। प्रकृत ग्रन्थका महत्त्वपूर्ण भाग डॉ० कोठिया द्वारा लिखित ५४ पृष्ठोंकी महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना है । इसके द्वारा कोठियाजीके गंभीर अध्ययन, चिन्तन और अन्वेषणके विषय में विस्तृत जानकारी मिल जाती है । सबसे पहले ग्रन्थ- परिचय दिया गया है। आचार्य विद्यानन्दने इस ग्रन्थकी रचना आचार्य गृद्धपिच्छ द्वारा रचित 'तत्त्वार्थसूत्र' के मङ्गलाचरण पद्यको आधार बनाकर की है । इस ग्रन्थ में कुल एकसौ चौबीस कारिकाएँ हैं और उनपर स्वयं विद्यानन्दकी 'आप्तपरीक्षालङ्कृति' नामक स्वोपज्ञ विस्तृत टीका है । इसमें वैशेषिक दर्शन, सांख्यदर्शन, बौद्धदर्शन, वेदान्तदर्शन और मीमांसादर्शन के तत्त्वोंकी तथा इनके उपदेशकों की युक्तिपूर्वक परीक्षा करके अन्त में मोक्षमार्गनेतृत्व, कर्मभूभृद्भेतृत्व और विश्वतत्त्वज्ञातृत्व इन तीन गुणोंसे युक्त अरहन्त जिनको आप्त सिद्ध किया गया है । प्रस्तावना में आचार्य विद्यानन्दके सम्बन्ध में विस्तृत विचार किया गया है। सबसे पहले यह बतलाया गया है कि जैन परम्परामें विद्यानन्द नामके तीन आचार्य हुए हैं । किन्तु यहाँ इस ग्रन्थके कर्ता, अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि दार्शनिक ग्रन्थोंके रचयिता तार्किक शिरोमणि विद्यानन्दको सिद्ध किया है और उनके विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । विद्यानन्द और पात्रकेसरीके विषय में जो एकताका भ्रम प्रचलित था उसका निराकरण युक्तिपूर्वक किया गया है। आचार्य विद्यानन्दके जीवन-परिचयपर प्रकाश डालते हुए बतलाया गया है कि वे दक्षिण के किसी प्रदेश में ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुए थे। दार्शनिक जिज्ञासा के कारण उन्होंने न्याय, वैशेषिक, वेदान्त आदिके दार्शनिक ग्रन्थोंका अध्ययन किया और अन्त में जैनदर्शनके देवागम, अष्टशती, वादन्याय आदि ग्रन्थोंसे प्रभावित होकर जैनधर्म स्वीकार करके जैन साधुकी दीक्षा ग्रहण कर ली थी । गुण- परिचय - दिग्दर्शन में सप्रमाण बतलाया गया है कि आचार्य विद्यानन्द सम्पूर्ण दर्शनोंके विशिष्ट अभ्यासी विद्वान् थे । उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसा, वेदान्त, चार्वाक और बौद्धदर्शनके मन्तव्योंको जिस प्रामाणिकता के साथ पूर्वपक्ष के रूपमें प्रस्थापित किया है उससे उनके तत्तद्दर्शनों के गम्भीर अध्यनकी स्पष्ट झलक मिलती है । भावना, विधि और नियोगकी दुरुह चर्चा सर्वप्रथम विद्यानन्द - ११८ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy