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________________ १. प्रमाण सामान्य-प्रकाश १. पहले प्रकाशका नाम प्रमाणसामान्यप्रकाश है। इस प्रकाशमें प्रमाण-सामान्यका लक्षण बतायां गया है। कहा गया है कि 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' अर्थात यथार्थ ज्ञान प्रमाण है । इस लक्षणमें अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव इन तीन लक्षण-दोषोंमेंसे कोई भी दोष नहीं है । अतः यह प्रमाणका निर्दोष लक्षण है। जैनेतर दर्शनोंमें बौद्ध 'अविसंवादि ज्ञानं प्रमाणम्'-अविसंवादि ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । किन्तु असम्भव दोष होनेसे यह प्रमाणका सम्यक् (निर्दोष) लक्षण नहीं है । उन्होंने दो प्रमाण माने हैं-१ प्रत्यक्ष और २ अनुमान । प्रत्यक्ष निर्विकल्पक होनेसे वह अविसंवादी-निश्चयात्मक नहीं हो सकता और अनुमान उन्हींके मतानुसार मिथ्याभूत सामान्यको विषय करनेसे अविसंवादी (यथार्थ) नहीं है । लक्ष्यभूत दोनों प्रमाणोंमें लक्षण (अविसंवादीपन) न रहनेसे उनका यह प्रमाणलक्षण असंभवि (असम्भवदोष सहित) है। प्राभाकर 'अनुभूतिः प्रमाणम्-अनुभू तिको प्रमाण मानते हैं। परन्तु उनका यह लक्षण करण और भाव दोनों साधनोंमें परस्पर अव्याप्त है, क्योंकि करणसाधन (अनुभूयतेऽनेनेति) मानने पर भावसाधनमें और भावसाधन (अनुभूतिमाशं अनुभूतिः) को प्रमाण कहने पर करण साधनमें लक्षण अव्याप्त (अव्याप्तिदोष युक्त) होता है। भाट्टमीमांसक 'अनषिगततयाभूतार्थनिश्चायकं प्रमाणम्' अनधिगत एवं यथार्थ अर्थके निश्चायकको प्रमाण बतलाते हैं। किन्तु उनका यह प्रमाणलक्षण भी धारावाहिक ज्ञानोंमें, जो अधिगत अर्थके निश्चायक एवं प्रमाण हैं, अव्याप्त है। नैयायिक 'प्रमाणकरणं प्रमाणम्' प्रमाके करणको प्रमाण मानते हैं। लेकिन उनका भी यह प्रमाणलक्षण अव्याप्तिदोष युक्त है, क्योंकि प्रमाणरूपसे स्वीकृत ईश्वरमें वह नहीं रहता। ईश्वर तो प्रमाका आश्रय है, करण नहीं। उसकी प्रमाको उन्होंने नित्य माना है। अतः ईश्वर करण नहीं है, अधिकरण है । इस प्रकार अन्य प्रमाणलक्षणोंको सदोष बतला कर 'सम्यग्ज्ञान' को प्रमाणका निर्दोष लक्षण प्रतिपादित किया गया है। इसी सन्दर्भ में प्रमाणके प्रामाण्य की ज्ञप्ति और उत्पत्तिका विचार करते हुए अभ्यास दशा (परिचित जगह) में ज्ञप्तिको स्वतः और अनभ्यासदशा (अपरिचित स्थान) में परतः सिद्ध किया है तथा उत्पत्तिको सर्वत्र (अभ्यास और अनम्यास दशामें) परतः (गुणोंसे) बतलाया गया है। प्रसंगसे अन्य मतोंकी समीक्षा भी की गयी है। इस तरह प्रथम प्रकाशमें प्रमाणसामान्य का लक्षण और उसके प्रमाण्यका समीक्षापूर्वक अच्छा विमर्श किया गया है। २. प्रत्यक्ष-प्रकाश इसमें आरम्भमें प्रमाणके दो भेद किये हैं-१ प्रत्यक्ष और २ परोक्ष । ध्यातव्य है कि वैशेषिक और बौद्ध भी प्रमाणके दो भेद मानते हैं । किन्तु उनके दो भेद प्रत्यक्ष और अनुमान हैं । सांख्य प्रमाणके प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन भेद, नैयायिक उनमें उपमानको मिलाकर चार भेद, प्राभाकर मीमांसक उक्त चारमें अर्थापत्ति सहित पाँच और भाद्र मीमांसक इनमें अभावको और मानकर छह प्रमाण स्वीकार करते हैं। परन्तु स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क (उहा) का इनमें अन्तर्भाव न हो सकनेसे इन सभी दार्शनिकोंकी -१०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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