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________________ जहाँ आप्त वक्ता नहीं है उनकी परीक्षा | सिद्धि हेतु 'हेतुवाद' आवश्यक है । फलतः जिन-प्रतिपादित तत्त्वोंको भी, अनुमादि-युक्तिके सहारे सम्भवतः पर-दार्शनिकोंको लक्ष्यकर सिद्ध किया गया है।' दशवकालिक-नियुक्तिकारने मन्दबुद्धि श्रोताके लिए उदाहरणका, तथा तीवबुद्धि श्रोताके लिए हेतु' का प्रयोग करना उचित बताया, आचार्य यतिवृषभ (तिलोयपण्णत्ति) ने कहा कि व्युत्पन्न शिष्योंकी बुद्धिको सन्तुष्ट करने, तथा अव्युत्पन्न शिष्योंको तत्त्वकी ओर आकृष्ट (रुचि जागृत) करनेके लिए हेतुवाद'का आश्रयण आवश्यक है। आचार्यकी योग्यता स्वसमयज्ञताके साथ-साथ पर-समयज्ञता भी मानी गई और उनसे अपेक्षा की गई कि वे आगम व हेलुओंसे जिनोक्त पदार्थों की सिद्धि (समर्थन) करने की क्षमता रखें। इसी(परम्परामें यशस्तिलककार सोमदेवसूरिने 'युक्ति' को तीर्थ-मार्ग घोषित किया। आ० हरिभद्रसूरिने लोक-प्रचलित विविध दृष्टियों | मतोंकी परीक्षा करनेके अनन्तर ही उन्हें स्वीकार करना उचित बताया। आ० सिद्धसेनने बताया कि आगम व हेतवाद-ये दोनों स्वतन्त्र पक्ष हैं। आगमवादके पक्षमें हेतुका प्रयोग करना, तथा हेतवादके पक्षमें आगमको प्रयुक्त करना उचित नहीं । आ० समन्तभद्र एवं आ० सिद्धसेनने जैन तर्कशास्त्रको प्राणवती प्रतिष्ठा प्रदान की और आ० अक आगमस्य अतर्कगोचरत्वात् (धवला, १।१।२५, पृ० २०७)। प्रत्यक्षागम-वाधितस्य तर्कस्य अप्रमणत्वात् (गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा १९६ की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका)। सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं हेतुभि व हन्यते । आज्ञासिद्ध तु तद् ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः ।। -(आलापपद्धति, ५) ।। तत्र धर्मादयः सुक्ष्याः "....''अस्ति सक्षमत्वमेतेषां लिंगस्याक्षरदर्शनात् । -(पंचाध्यायी, ३।४८३) ।। १. वक्तर्यनाप्ते यद् हेतोः साध्यं तद्धेतु-साधितम् ।-(आप्तमीमांसा, ७८)। २. परीक्ष्य हेमवद ग्राह्यं पक्षपाताग्रहेण किम् ।-(आ० हरिभद्र कृत 'लोकतत्त्वनिर्णय, १८)। पुरातनेष्वित्यनवस्थितेषु कः, पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोचयेत् । -(आ० सिद्धसेनवृत द्वात्रिशिका ६।५)। न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपात: (अयोगव्यवच्छेदिका, २१)। अपक्षपातेन परीक्षमाणः (अयोग०२२)। दृष्टेष्टाबाधितो यस्तु तस्य कार्यः परिग्रहः (योगबिन्दु, आ० हरिभद्र, ५।५२५)। युक्त्या यन्न घटा मुपेति तदहं दृष्ट्वापि न श्रद्दधे । (अष्टशती-अष्टसहस्री, पृ० २३४ में उद्धृत) । ३. दशवैकालिक-नियुक्ति, गाथा, ४९ । ४. तम्हा पुन्वाइरियवक्खाणापरिच्चाए ण एसा वि दिसा हेतुवादाणुसारि-वियुप्पण्णसिस्साणुग्गह-अणुप्पण्ण जण उप्पायणटुं च दरिसेदव्वा ।-(तिलोयपण्णत्ति, ७।६१३)। ५. सगपरसमयविदः आगमहे(हिं चावि जाणित्ता। सुसमत्था जिणवयणे विणये सत्ताणुरूवेण ॥-(प्राकृत आचार्यभक्ति)। ६. लोको युक्तिः कलाच्छन्दोऽलंकाराः समयागमाः । सर्वसाधारणाः सद्भिः तीर्थमार्ग इव स्मृताः ॥ -(यशस्तिलक, ११२०)। ७. असत्याः सत्यसंकाशाः सत्याश्चासत्यसंनिभाः। दृश्यन्ते विविधा भावाः, तस्माद् युक्तं परीक्षणम् ।। --(आ० हरिभद्रकृत धर्मविन्दु, ८५) । ८. दुविहो धम्मावाओ अहेउवाओ य हेउवाओ य ।'" जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमे य आगमियो। सो समयवपण्णवओ सिद्धन्तविराहओ अन्नो ।।- (सन्मतिप्रकरण, ३।४३.४५) ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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