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________________ 'न्याय' शब्द का अन्य कई अर्थोंमें प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । उदाहरणार्थ : (१) लोक-शास्त्र-प्रसिद्ध दृष्टान्त-विशेष (२) अभिधान-प्रकार (३) परार्थानुमान (४) पंचावयव (अनुमान) वाक्य, आदि-आदि । न्याय-शास्त्रका दूसरा नाम 'अन्वीक्षा', आन्वीक्षिकी विद्या भी है।५ 'अन्वीक्षा' से तात्पर्य हैप्रत्यक्ष व शब्द प्रमाणपर आश्रित अनुमान । दूसरे शब्दोंमें, प्रत्यक्ष व शब्द प्रमाणकी सहायतासे अवगत विषयका (अनु) पश्चाद्वर्ती (ईक्षा) पर्यालोचन, अर्थात् अनुमिति रूप ज्ञान । अन्वीक्षाके अनुसार प्रवृत्त होने वाली विद्या हई-आन्वीक्षिकी। इस प्रकार आन्वीक्षिकी विद्या प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द प्रमाणोंसे ज्ञात विषयको पुष्ट एवं सिद्ध करती है। न्याय या आन्वीक्षिकी विद्याका दूसरा नाम 'तर्कशास्त्र' भी है, जिसका प्रथमतः प्रतिपादन गौतम या मेधातिथि द्वारा किया गया माना जाता है, और जो भारतीय दर्शनके क्षेत्रमें एक स्वतन्त्र दर्शनके रूपमें प्रतिष्ठित हो चुकी है। इस दर्शनमें प्रमेय व प्रमाण दोनोंका निरूपण किया गया है। कालान्तरमें १. न्यायः लोकशास्त्रप्रसिद्धदृष्टान्तविशेषः (सांख्यतत्वकौमुदी, श्लो० १ पर टीका)। जैसे-कदम्बमुकुलन्याय, सूची-कटाहन्याय आदि । २. न्याय प्रकाशन व कथनका प्रकार । 'उद्घातः प्रणवो यासां न्यायस्त्रिभिरुदीरणम्' (कुमारसम्भव, २०१२)। तीन प्रकारके अभिधान-(अ) उत्तम-मध्यम-अधम, (आ) ऋग्यजुःसाम (इ) अध्ययन-अध्यापन-कर्म । ३. आसाधारण्येन व्यपदेशा भवन्ति-इति न्यायेन, न्यायस्य परार्थानुमानापरपर्यायस्य-(सर्वदर्शन-संग्रह, अक्षपाद-प्रकरण)। ४. समस्तरूपोपेत लिङ्गबोधकवाक्यजातं न्यायः-(न्यायकुसुमाञ्जलि-१ पर हरिदासीय टीका)। समस्त . रूप = पक्षसत्त्व, सपक्ष सत्त्व, विपक्ष-असत्त्व, अबाधितविषयत्व. असत्प्रतिपक्षत्व । वाक्यजात-प्रतिक्षा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन । . पंचावयवोपेतवाक्यात्मको न्यायः (वात्स्यायन-भाष्य-१।१११)। ५. आन्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम् (वात्स्यायन-भाष्य-१।१।१)। सेयमान्वीक्षिकी न्यायतर्कादिशब्दैरपि व्यह्रियते (न्यायकोष-पृ० ४४७) । म्, सा अन्वीक्षा। अथवा प्रत्यक्षागमाभ्याम् ईक्षितस्य अन्वीक्षणम्-अन्वीक्षा। तया प्रवर्तते इति आन्वीक्षिकी (न्याय-भाष्य, १।११) । ७. (क) न्यायो गौतमप्रणीत-सूत्रसन्दर्भरूपा तर्कविद्या (न्यायसिद्धान्तमंजरीप्रकाश, लोगाक्षि भास्करकृत, १० ३)। गौतमप्रणीतशास्त्रस्य न्यायशास्त्रम इति व्यपदेशो युज्यते (सर्वदर्शनसंग्रह-अक्षपाद)। षोडशपदार्थानुसारिन्यायज्ञः (भाषापरिच्छेद, श्लो० १०७) । कणादेन तु संप्रोक्तं शास्त्रं वैशेषिकं महत्। गोतमेन तथा न्यायम् ॥ (पद्मपुराण-उत्तरखण्ड, अ० २६३) । (ख) मेधातिथेायशास्त्रम् (प्रतिमा-नाटक, अंक ५)। (ग) मेधातिथि = गौतम । मेधातिथिमहाप्राज्ञो गौतमस्तपसि स्थितः । विमृश्य तेन कालेन, पल्याः संस्थाव्यतिक्रमः ॥ (महाभारत, शान्तिपर्व, २६६।४५, गीताप्रेस संस्करण) । -९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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