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________________ सम्पादकीय बीसवीं शताब्दी में जैन विद्याका जितना प्रचार एवं प्रसार हुआ तथा उसे साहित्यिक जगत्में जो मान्यता प्राप्त हुई वह सर्वथा प्रशंसनीय है । गत १०० वर्षों में उच्चकोटिके जितने विद्वान् हुये, उतने इसके पूर्व एक ही शताब्दी में कभी नहीं हुये थे । इस शताब्दी में होनेवाले कितने ही विद्वानोंने अपने २ कीर्तिमान स्थापित किये | आगम-ग्रन्थोंका सम्पादन एवं प्रकाशन इसी शताब्दीकी एक महान् उपलब्धि है । भारतीय ज्ञानपीठ देहली, माणिकचन्द्र जैन ग्रंथमाला बम्बई, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, साहित्य - शोध विभाग जयपुर, वर्णी-ग्रन्थमाला वाराणसी, जैन स्वाध्याय-ट्रस्ट, सोनगढ़, वीर सेवा - मन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी जैसी साहित्य-प्रकाशन संस्थाओं द्वारा सैकड़ों ग्रंथोंके प्रकाशनसे समाज में साहित्यिक रुचि निरन्तर वृद्धि हुई है। इसके अतिरिक्त राजस्थानके जैन ग्रन्थागारोंकी सूचियोंके जो पाँच भाग प्रकाशित हुये हैं उनसे तथा देहली एवं ताडपत्रीय ग्रन्थोंकी सूचियोंसे जैन साहित्यकी विशालता एवं उनमें पायी जानेवाली साहित्यिक सम्पदाको देखने का अवसर मिला है। और जैनेतर विद्वानोंके जैन साहित्य के प्रति विचारोंमें कुछ बदलाव आया है । श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी, जयपुर द्वारा समस्त हिन्दी जैन साहित्यको प्रकाशित करनेकी महत्त्व - पूर्ण योजना और अब तक पांच भागोंके प्रकाशनसे आशाकी एक नयी लहर फैलने लगी है। अपभ्रंश साहित्यका प्रकाशन भी इस युगकी एक विशेषता रही है। इससे स्वयम्भू पुष्पदंत, वीर, नयनन्दि, धवल, धनपाल एवं इधू जैसे महाकवियों का समृद्ध साहित्य सामने आ सका है । अब तो दि० जैन महासभा द्वारा समस्त अपभ्रंश-साहित्य के प्रकाशनकी योजना भी बन रही है। इस शताब्दी में होनेवाले विद्वानोंकी यदि हम गणना करने लगें, तो वह सूची बहुत लम्बी होगी । लेकिन उल्लेखनीय विद्वानोंमें आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज, पं० गोपालदास वरैया, वैरिस्टर चम्पतरायजी, जे० एल० जैनी, पं० वंशीधर न्यायालंकार पं० मक्खनलालजी शास्त्री, पं० खूबचन्दजी शास्त्री, डॉ० कामताप्रसाद जैन, ब्र० शीतलप्रसादजी, डॉ० हीरालाल जैन, डा० ए० एन० उपाध्ये, पं० माणिकचन्द कौन्देय, पं० लालाराम शास्त्री, पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ, डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, पं० जुगलकिशोर मुख्तार, मुनि जिनविजयजी, पं० परमानन्दजी शास्त्री प्रभृति के नाम लिये जा सकते हैं । वर्त मानमें जैनाचार्य एवं विद्वत् वर्ग दोनों ही इस दिशा की ओर प्रयत्नशील हैं । आचार्य विद्यासागरजी महाराज, सिद्धान्ताचार्य विद्यानन्दजी महाराज, आर्यिका ज्ञानमतीजी, विशुद्धमतीजी, पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री, पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री वाराणसी, पं० फूलचन्द्र शास्त्री, पं० बालचन्द्र शास्त्री, डॉ० दरबारीलालजी कोठिया, पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य, डॉ० देवेन्द्रकुमार नीमच, पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य, पं० सुमेरुचन्दजी शास्त्री, डॉ० कमलचन्द्र सोगानी, डॉ० भागचन्द भास्कर, डॉ० राजाराम जैन आरा आदिके नाम विशेषतः उल्लेखनीय है । ये सभी सन्त व विद्वान् अर्हन्निश जैन साहित्य के लेखन एवं शोधन में लगे हुये हैं । यही नहीं, अब तो कुछ वैज्ञानिक भी विज्ञानके आधारपर पुनर्जन्म, आत्मा, स्वर्ग एवं नरकके अस्तित्व के बारेमें गहरी खोज करनेमें लगे हैं । जैनदर्शन के अध्ययन, खोज एवं लेखनकी दिशामें भी पर्याप्त कार्य हुआ है । जैन दर्शन एवं न्यायके अधिकांश ग्रन्थ, जिनमें समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंकदेव, हरिभद्र, सिद्धसेन, वादीभसिंह, विद्यानन्द प्रभाचन्द्र, Jain Education International -५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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