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________________ करनेका अवसर मिला है, उससे मुझे यह स्वीकार करने में जरा भी संकोच नहीं दिखाई देता । अष्टसहस्त्री और श्लोकवार्तिक जैसे महान् ग्रन्थोंके अध्ययन-अध्यापनका दीर्घकाल बीत जानेपर भी इन ग्रंथों में इनकी अस्खलित गति इस समय भी यथावत् बनी हुई है । इन्होंने हिन्दू विश्वविद्यालयसे शास्त्राचार्यकी परीक्षा उत्तीर्ण की, प्रमाणविषय को लेकर पी-एच० डी० का पद भी अर्जित किया । हिन्दू विश्वविद्यालयके संस्कृत महाविद्यालयमें इन्होंने लेक्चरार और रीडरके पदको भी सुशोभित किया । किन्तु यह सब करना और होना महत्त्वकी बात नहीं है, महत्त्वकी बात है इनका धर्म और समाजके कार्योंमें जागरूक रहकर निरन्तर क्रियाशील बने रहना । यह इनका जीवन है और हमें आशा है कि अपने जीवनके अन्तिम क्षण तक इस गुरुतर उत्तरदायित्वको बहन करते रहेंगे । इस कार्य में इनकी धर्मपत्नी बहिन चमेली बाईका इन्हें भरपूर सहयोग मिला हुआ है। जब-जब हमें इनके घर जानेका अवसर मिला, मैंने उन्हें निरन्तर सहजभावसे आतिथ्य करते हुए ही देखा है । उनके चेहरेपर कभी भी मुझे अन्यथाभाव दिखाई नहीं दिया। वे हैं तो इनका जीवन चल रहा है । जो भी इनके कार्य हैं उनपर इस बहिनकी गहरी छाप है। मालूम पड़ता है कि मूकभाव से सेवा करते रहना यह इनका जीवन है । यदि दोनोंके स्वभावको बारीकौसे देखा जाय तो यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि डा० सा० में तो उतावलापन भी दिखाई देता है, कभी-कभी ऐसे उद्गार भी उनके मुखसे निकल जाते हैं जो उनके मुखसे प्रसूत नहीं होने चाहिये । परन्तु बहिन चमेली बाईका जीवन ही दूसरी धातुसे बना हुआ प्रतीत होता है । इनका यह सहयोग जीवनके अन्तिम क्षण तक बना रहे, यह हमारी मंगलकामना है । विद्वत्जगतके चमकते हुए सितारे विद्यावारिधि डॉ० ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ 'न्यायालंकार', 'न्यायवाचस्पति' आदि मानद उपाधि विभूषित डॉ० पण्डित दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य शास्त्राचार्य, एम० ए०, पी-एच० डी०, जैन दर्शन एवं प्रमाणशास्त्र - न्यायशास्त्र के वर्तमान मनीषियों में शीर्षस्थानीय हैं । शताब्दी के प्रारम्भमें स्याद्वादविद्यावारिधि गुरुणांगुरु पं० गोपालदास बरैयाने जैनेतर विद्वानोंका ध्यान स्याद्वाद दर्शनकी ओर आकर्षित किया था । उनके सुशिष्यों में पं० माणिक्यचन्द्र न्यायाचार्य, पं० वंशीधर न्यायालंकार, पं० मक्खनलाल न्यायालंकार, पं० गणेशप्रसाद वर्णी न्यायाचार्य प्रभृति कई मनीषी जैन न्यायगगन में प्रखर तेजके साथ चमके । तदनन्तर, दो तीन दशकों तक डॉ० पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य की उपलब्धियाँ अद्वितीय रहीं। इसी विद्याविदग्ध परम्पराके सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूपमें आज पण्डित कोठियाजी प्रतिष्ठित हैं । आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर', सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, पं० फूलचन्द सिद्धान्तशात्री, डॉ० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य जैसे विषयमर्मज्ञों एवं खोज-शोध कार्यमें परम निष्णात साहित्य साधकोंसे उन्होंने प्रशिक्षण, मार्गदर्शन, प्रेरणा एवं प्रोत्साहन प्राप्त किया और इसी क्षेत्रको अपना जीवन एकनिष्ठता के साथ समर्पित कर दिया । to न्यायविषयक प्रथम कृति भट्टारक धर्म भूषण (१५ वीं शती) कृत 'न्यायदीपिका' का सुसम्पादित एवं अनूदित संस्करण १९४५ ई० में वीरसेवामंदिर सरसावा से, जहाँ वह उस समय कार्यशील थे, प्रकाशित हुआ था। तत्पश्चात् १९५० में श्रीमद्वादीभसिंहकृत 'स्याद्वादसिद्धि', १९६१ में आचार्य नरेन्द्रसेनकृत 'प्रमाण- प्रमेयकलिका तथा १९७७ में विद्यानन्द स्वामीकृत 'प्रमाणपरीक्षा' के सुसम्पादित संस्करण Jain Education International - ५३ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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