SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को छोड़ कर कामातुर मूढ ही नारी रूपी औषध का हैं। 'न खरो न भृयसा मृदृः' उनकी नीति का मूलमन्त्र है । सेवन करता है। वास्तविक सख इहलोक में ही विद्य वलीबत्वं केवला क्षान्तिश्चण्डत्वमविवेकिता। मान है। द्वाभ्यामतः समेताभ्यां सोऽट सिद्धिममन्यत ॥ १।४३ हितं धर्मोषधं हित्वा मढाः कामज्वरार्दिताः । प्रशासन के चारु संचालन के लिये उन्होंने न्यायप्रिय तथा मुखप्रियमपश्यन्तु सेवन्ते ललनौषधा" ॥ ६।४ शास्त्रवेत्ता मन्त्रियों को नियुक्त किया है (१।४७)। उनके आत्मा तोषयितं नैव शक्यो वैषयिकैः मुखः। रिमतकान्त ओष्ठ मित्रों के लिये अक्षय कोश लुटाते हैं तो सलिलैरिव पाथोधिः काष्टरिव धनञ्चयः ॥ १।२५ उनकी भ्र भंगिमा शशुओं पर वज्रपात करती है। अनन्तमक्षयं सौख्यं भुञ्जा नो ब्रह्मसद्म नि । वज्रदण्डायते सोऽयं प्रत्यनीकमहीभुजाम् । ज्योति:स्वरूप एवायं तिष्ठत्यात्मा सना नः ॥ ६।२६ ___ कल्पद्रमायते कामं पादद्वन्द्वोपजी विनाम् ।। १।५२ नेमिनाथ पितृवत्सल पुत्र हैं। माता के आग्रह से वे, प्रजाप्रेम समुद्रविजय के चरित्र का एक अन्य गुण है। इच्छा न होते हए भी वे बल उनकी प्रसन्नता के लिए विवाह यथोचित कर-व्यवस्था से उसने सहज ही प्रजा का विश्वास करना स्वीकार लेते हैं। किन्तु वधू गृह में भोजनार्थ बध्य प्राप्त कर लिया है। पशुओं का आर्त स्वर सुनकर उनका निद प्रबल हो जाला है और वे विवाह से विमुख होकर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेते हैं। आकाराय ललौ लोकाद् भागधेयं न तृष्णया । १।४५ समुद्र विजय- यदुपति समुद्रविजय कथानायक नेमि- समुद्रविजय पुत्रवत्सल पिता हैं। पुत्र जन्म का नाथ के पिता हैं। उनमें राजोचित मचे गण विद्यमान है। समाचार सुनकर उनकी बाछे खिल जाती हैं। पुत्र-प्राप्ति वे रूपवान्, शक्तिशाली, ऐश्वर्य सम्पन्न तथा प्रहर मेधावी के उपलक्ष्य में वे मुक्तहस्त से धन वितरित करते हैं, बन्दियों हैं। उनके गुण अलंकरण मात्र नहीं हैं. वे व्यावहारिक को मुक्त कर देते हैं तथा जन्मोत्सव का ठाटदार आयोजन जीवन में उनका उपयोग करते हैं (शक्तेरनगणाः क्रियाः करते हैं, जो निरन्तर बारह दिन तक चलता है। १।३६)। समुद्रविजय अन्तस् से धामिक व्यक्ति हैं। उनका धर्म समुद्रविजय तेजस्वी शासक हैं । उनके बन्दी के शब्दों सर्वोपरि है । आर्हत-धर्म उन्हें पुत्र, पत्नी, राज्य तथा प्राणों में अग्नि तथा सूर्य का तेज भले ही शान्त हो जाये. उनका से भी अधिक प्रिय है। पराक्रम सर्वत्र अप्रतिहत है। प्राणेभ्योऽपि धनेभ्योऽति योषिद्भ्योऽप्यधिकं प्रियम् । विध्या यतेऽम्भसा वह्निः सूर्योऽब्देन पिधीयते । सोऽमस्त मेदिनीजानि विशुद्ध धर्ममाहतम् ॥ १।४२ न केनापि परं राजस्वत्तेज: परिहीयते ॥ ७।२५ इस प्रकार समदविजय त्रिवर्गसाधन में रत हैं। इस सिंहासनारुढ़ होते ही उनके शत्रु निष्प्रभ हो जाते हैं । फलतः सव्यवस्था तथा न्यायपरायणता के कारण उनके राज्य में शत्रु लक्ष्मो ने उनका इस प्रकार वरण किया जैसे नवयौवना समय पर वर्षा होती है, पृथ्वी रत्न उपजाती है तथा प्रजा बाला विवाहवेला में पति का (१।३८) । उनका राज्य निरजीवी है । और वह स्वयं राज्य को इस प्रकार निश्चिन्त पाशविक बल पर आधारित नहीं है। केवल क्षमा को होकर भोगते हैं जैसे कामो कामिनी की कंचन काया को। नपुंसकता तथा निर्बाध प्रचण्डता को अविवेक मान कर, इन काले वर्षति पर्जन्यः सूते रत्नानि मेदिनी । दोनों के समन्वय के आधार पर ही वे राज्य-संचालन करते प्रजाश्चिराय जीवन्ति तस्मिन् भुञ्जति भूतलम् ॥१॥४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy