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________________ [३ ] वस्त्र-कम्बल उन्होंने 'राजाभियोग' से स्वीकार किया और हरिसागरसूरिजी महाराज की प्रेरणा से परिवद्धित कर मुहम्मद तुगलक ने बड़े महोत्सव के साथ जिनप्रभसूरि और पंडितजी ने ग्रन्थ रूप में तैयार कर दिया, जिसे सं० १९६५ जिनदेवसरि को हाथियों पर आरूढ़ कर पौषधशाला में श्रीजिनहरिसागरसूरि ज्ञान भण्डार, लोहावट से देवनागरी पहुँचाया । समय-समय पर सूरिजी एवं उनके शिष्य जिनदेव- लिपि व गुजराती भाषा में प्रकाशित किया गया। सूरि को विद्वत्तादि से चमत्कृत होकर सुलतान ने शत्रुजय, प्रतिभासम्पन्न महान् विद्वान जिनप्रभसूरि जी को दो गिरनार, फलौदी आदि तीर्थों की रक्षा के लिए फरमान प्रधान रचनाएँ विविधतीर्थकल्प और विधिमार्ग-प्रमा दिए । कल्प के रचयिता ने अन्त में लिखा है कि मुहम्मद मुनि जिनविजयजी ने सम्पादित की है, उनमें से विधिशाह को प्रभावित करके जिनप्रभसूरिजी ने बड़ी शासन प्रपा में हमने जिनप्रभसूरि सम्बन्धी निबन्ध लिखा था। प्रभावना एवं उन्नति को। इस प्रकार पंचम काल में चतुर्थ इसके बाद हमारा कई वर्षों से यह प्रयत्न रहा कि सूरिआरे का भास कराया। महाराज सम्बन्धी एक अध्ययनपूर्ण स्वतन्त्र वृहद्ग्रन्थ प्रकाउपयुक्त कन्नाणय महावीर कल्प का परिशेष रूप अन्य शित किया जाय और महो० विनयसागरजी को यह काम कल्प सिंहतिलकसूरि के आदेश से विद्यातिलक मुनि ने लिखा सौंपा गया। उन्होंने वह ग्रन्थ तैयार भी कर दिया है, है जिसमें जिनप्रभसूरि और जिनदेवसूरि को शासन साथ ही सूरिजी के रचित स्तोत्रों का संग्रह भी संपादित कर प्रभावना व मुहम्मद तुगलक को सविशेष प्रभावित करने का रखा है। हम शीघ्र ही उस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को प्रकाशन विवरण है । ये दोनों ही कल्प जिनप्रभसूरिजी की विद्य- करने में प्रत्यनशील हैं। मानता में रचे गए थे। इसी प्रकार उन्हीं के समकालीन सूरिजी सम्बन्धी प्रबन्धों की एक सतरहवीं शती रचित जिनप्रभसूरि गीत तथा जिनदेवसूरि गीत हमें प्राप्त की लिखित संग्रह प्रति हमारे संग्रह में है, पर वह अपूर्ण हो हुए जिन्हें हमने सं० १९६४ में प्रकाशित अपने ऐतिहासिक प्राप्त हुई है। हम उपदेशसप्तति प्रबन्ध-पंचशती एवं प्रबन्ध जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित कर दिया है। उनमें स्पष्ट संग्रहादि प्रकाशित प्रबन्धों को देखने का पाठकों को लिखा है सं० १३८५ के पौष शुक्ल ८ शनिवार को दिल्ली अनुरोध करते हैं जिससे उनके चामत्कारिक प्रभाव और में मुहम्मद साह से श्री जिनप्रभसूरि मिले । सुलतान ने उन्हें महान व्यक्तित्व का कुछ परिचय मिल जायगा। जिनप्रभअपने पास बैठाकर आदर दिया। सूरिजीने नवीन काव्यों सूरिजी का एक महत्वपूर्ण मंत्र-तंत्र सम्बन्धी ग्रन्थ रहस्यद्वारा उसे प्रसन्न किया। सुलतान ने इन्हें धन-कनक आदि कल्पद्रुम भी अभी पूर्ण रूप से प्राप्त नही हुआ, उसकी खोज बहुत सी चीज दी और जो चाहिए, मांगने को कहा पर जारी है। सोलहवीं शताब्दी की प्रति का प्राप्त अन्तिम निरीह सूरिजी ने उन अकल्प्य वस्तुओं को ग्रहण नहीं किया। पत्र यहां प्रकाशित किया जा रहा है । इससे विशेष प्रभावित होकर उन्हें नई वस्ती आदि का रहस्यकल्पदुम' फरमान दिया और वस्त्रादि द्वारा स्वहस्त से इनकी पूजा त संघ प्रत्यनीकानां भयंकरादेशाः । करीयं जयः । की। स्वदेशे जयः परदेशे अपराजितत्वं । तीर्थादिप्रत्यनीकमध्ये _____सं० १९८६ में पं० लालचन्द भ० गांधी का जिनप्रभ- एतत्त्रयमस्य महापीठस्य स्मरणेन भवति । ॐ ह्रीं महासूरि और सुलतान मुहम्मद सम्बन्धी एक ऐतिहासिक निबन्ध मातंगे शुचि चंडालो अमुकं दह २ पच २ मथ २ उच्चाटय 'जेन' के रौप्य महोत्सव अंक में प्रकाशित हुआ। जिसे श्री २ ह्र फुट् स्वाहा ॥ कृष्ण खडी खंड १०८ होमयेतू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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