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________________ । ३४ 1 ग्रन्थों में मिलता है और यह बात विशेष उल्लेख योग्य सम्मान प्राप्त किया था। उन्होंने कन्नाणा की महावीर है। सं० १५०३ में सोमधर्म ने उपदेश-सप्ततिका नामक प्रतिमा सुलतान से प्रासाकर दिल्ली के जैन मंदिर में स्थापित अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ के तृतीय गुरुत्वाधिकार के पंचम करायी थी । पीछे से मुहम्मद तुगलक ने जिनप्रभसूरि के उपदेश में जिन प्रभसूरि के बादशाह को प्रतिबोध एवं कई शिष्य 'जिनदेवसूरि को सुरत्तान सराइ दी थी जिनमें चमत्कारों का विवरण दिया है। प्रारम्भ में लिखा है कि चार सौ श्रावकों के घर, पौषधशाला व मन्दिर बनाया इस कलियुग में कई आचार्य जिन शासन रूपी घर में दीपक उसी में उक्त महावीर स्वामी को विराजमान किया गया । के सामान हुए। इस सम्बन्ध में म्लेच्छपति को प्रतिबोध इनकी पूजा व भक्ति श्वेताम्बर समाज ही नहीं, दिगम्बर को देने वाले श्रीजिनप्रभसूरि का उदाहरण जानने लायक और अन्य मतावलम्बी भी करते रहे हैं। है । अंत में निम्न श्लोक द्वारा उनकी स्तुति की कन्यानयनीय महावीर प्रतिमा कल्प के लिखनेवाले गई है: "जिनसिंहसूरि- शिष्य' बतलाथे गये हैं अत: जिनप्रभसूरि या स श्री जिनप्रभःसूरि-दुरिताशेषतामस: उनके किसी गुरुम्राता ने इस कल्प की रचना की है। भद्र' कगेतु संघाय, शासनस्य प्रभावकः ॥ १॥ इसमें स्पष्ट लिखा है कि हमारे पूर्वाचार्य श्री जिनपतिसूरि इसी प्रकार संवत् ६५२१ में तपागच्छीय शुभशील जी ने सं० १२३३ के आषाढ़ शुक्ल १० गुरुवार को इस गणि ने प्रबन्ध पंचशती नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बनाया जिसके प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी और इसका निर्माण जिनपति प्रारम्भ में ही श्री जिनप्रभसूरिजी के चमत्कारिक १६ प्रवन्ध सूरि के चाचा मानदेव ने करवाया था । अन्तिम हिन्दू सम्राट देते हुए अंत में लिखा है पृथ्वीराज के निधन के बाद तुर्कों के भय से सेठ रामदेव 'इति कियन्तो जिनप्रभसूरी अवदातसम्बन्धाः" के सचनानुसार इस प्रतिमा को कंयवास स्थल की विपुल इस ग्रन्थ में जिनप्रभसूरि सम्बन्धी और भी कई ज्ञातव्य बालू में छिपा दिया गया था । सं० १३११ के दारुण दुर्भिक्ष प्रबन्ध हैं। उपरोक्त १६ के अतिरिक्त नं०२०,३०६,३१४ में जोज्जग नामक सूत्रधार को स्वप्न देकर यह प्रतिमा प्रगट तथा अन्य भी कई प्रबन्ध आपके सम्बन्धित हैं। पुरातन हुई और श्रावकों ने मन्दिर बनवाकर विराजमान की। प्रबन्ध संग्रह में मुनि जिनविजयजी के प्रकाशित जिनप्रभसूरि सं० १३८५ में हांसी के सिकदार ने श्रावकों को बन्दी उत्पत्ति प्रबन्ध व अन्य एक रविवर्द्धन लिखित विस्तृत प्रबन्ध बनाया और इस महावीर बिम्ब को दिल्ली लाकर तुगलकाहै। खरतरगच्छ वृहद्-गुर्वावली-युगप्रधानाचार्य गुर्वावलो बाद के शाही खजाने में रख दिया । के अंत में जो वृद्धाचार्य प्रबन्धावली नामक प्राकृतको रचना जनपद विहार करते हुए जिनप्रभसूरि दिल्ली पधारे और प्रकाशित हुई है। उसमें जिनसिंहसूरि और जिनप्रभसूरि राजसभा में पण्डितों की गोष्ठी द्वारा सम्राट को प्रभावित के प्रबन्ध, खरतरगच्छीय विद्वान के लिखे हुए हैं एवं कर इस प्रभु-प्रतिमा को प्राप्त किया। मुहम्मद तुगलक ने खरतरगच्छ को पट्टावली आदि में भी कुछ विवरण मिलता अद्धरात्रि तक सूरिजी के साथ गोष्टी की और उन्हें वहीं है पर सबसे महत्वपूर्ण घटना या कार्यविशेष का सम- रखा। प्रत: काल संतुष्ट सुलतान ने १००० गायें, बहुत कालीन विवरण विविध तीर्थकल्प के कन्यानयनीय महावीर सा द्रव्य, वस्त्र-कंवल, चंदन, कर्पूरादि सुगंधित पदार्थ प्रतिमा कल्प और उसके कल्प परिशेष में प्राप्त है। उसके सूरिजी को भेंट किया। पर गुरुश्री ने कहा ये सब साधुओं अनुसार जिनप्रभसूरिजी ने यह मुहम्मद तुगलक से बहुत बड़ा को लेना प्रकल्प्य है। सुलतान के विशेष अनुरोध से कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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