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________________ आलोचना विधान, (२) शय्या, (३) संस्तारक, (४) निर्या- कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यके स्वोपज्ञ विवरण वाले मक, (५) दर्शन, (६) हानि, (७) प्रत्याख्यान, (८) संस्कृत योगशास्त्रसे भी परामर्श सूचित किया था। इस खामणा- क्षमापना, (६) क्षमा इस तरह नौ द्वारों को संवेगरंगशालाकी रचना विक्रमसंवत् ११२५ में, और विविध दृष्टान्तोंसे स्पष्ट समझाया है। श्री हेमचन्द्राचार्य का जन्म विक्रमसंवत् ११४५ में (बीस वर्ष ___ चोथे (४) समाधि-लाभ नामक स्कन्ध (विभाग) में पीछे) हुआ था, प्रसिद्ध है। (१) अनुशास्ति, (२) प्रतिपत्ति, (३) सा(स्मा)रणा, (४) संवेगरंगशालामें परिणामद्वारमें आयुष्यपरिज्ञानके कवच, (५) समता, (६) ध्यान, (७) लेश्या, (८) आरा- जो ११ द्वारों (१) देवता, (२) शकुन, (३) उपश्रुति, (४) धना-फल और (6) विजहना द्वारमें अनेक ज्ञातव्य विषय छाया, (५) नाडी, (६) निमित्त, (७) ज्योतिष, (८) समझाये गये है। स्वप्न, (6) अरिष्ट, (१०) यन्त्र-प्रयोग और (११) विद्या-इपके (१) अनगास्ति द्वारमें त्याग करने योग्य द्वार दर्शाये हैं। इसी तरह श्रीहेमचन्द्राचार्यने अपने संस्कृत १८ अठारह पापस्थानकों के विषय में, (२) त्याग करने योगशास्त्रमें (पांचवें प्रकाशमें) काल-ज्ञानका विचार योग्य ८ आठ प्रकारके मदस्थानों के विषयमें, (३) त्याग । विस्तारसे दर्शाया है। तुलनात्मक दृष्टिसे अभ्यास करने करने योग्य क्रोधादि कपायोंके विषयमें, ४) त्याग करने योग्य है। योग्य ५ पांच प्रकार के प्रमाद के विषय में, (५) प्रतिबन्ध-त्याग पाटण और जेसलमेर आदिके जैन ग्रन्थभंडारों में विषयमें, (६) सम्यक्त्व- स्थिरता के विषयमें, (७) अहन आदि आरधना-विषयक छोटे-मोटे अनेक ग्रन्थ है, सूचीपत्रमें छःकी भक्तिमत्ता के विषयमें, (८) पंचनमस्कारतत्परता के दर्शाये हैं। इन सबका प्राचीन आधार यह संवेगरंगशाला विषयमें, (8) सम्यग ज्ञानोपयोग के विषयमें, १०) पंच आराधनाशास्त्र मालूम होता है। वर्तमानमें, अन्तिम महादात विषयमें, (११) चतु:शरण-गमन, (१२. दुष्कृत-गीं, आराधना कराने के लिए सुनाया जाता आराधना प्रकीर्णक, (१३) मृकृतों की अनुमोदना, (१४, अनित्य आदि १२ चउ परणपयन्ना और उ० विनय विजयजी म० का पुण्यबारह भावना, (१५) शील-पालन, (१६) इन्द्रिय-दमन, प्रकाश स्तवन इत्यादि इस संवेगरंगशाला ग्रन्थका 'ममत्व(१७) तपमें उद्यम और १८) निःशल्यता-नियाण-निदान. व्युच्छेद' 'समाध-लाभ' विभागका संक्षेप है- ऐसा अवलोमाया, मिथ्यात्व-शल्य-त्याग इस प्रकार १८ द्वारों को कनसे प्रतीत होगा। अन्य व्यतिरेकसे विविध दृष्टान्तों द्वारा विवेचन करके दस हजारसे अधिक ५३ प्राकृत गाथाओंका सार इस अच्छी तरहसे समझाया गया है। संक्षिप्त लेखमें दिगदर्शन रूप सूचित किया है। परम उपइसके प्रथम स्कन्धके परिणाम द्वार में श्रावकोंकी ११ कारक इस ग्रन्धका पठन-पाठन, व्याख्यान, श्रवण, अनुवाद प्रतिमाओं के अनन्तर साधारण द्रव्यके १० विनियोग आदिसे प्रसारण करना अत्यन्त आवश्यक है, परम हितकारक स्थान दर्शाये हैं, विचारने समझने योग्य हैं; अन्य ७क्षेत्रों स्व * नो स्वपरोपकारक है। में द्रव्यापन करने का उपदेश है। आजसे २६ वर्ष पहिले आशा है, चतुर्विध थीसंघ इस आराधना शास्त्रके मैंने १ लेख 'सशील जैन महिलाओनां संस्मरणो' मंबई और प्रचारमें सब प्रकारसे प्रयत्न करके महसेन राजाकी तरह मांगरोल जैन सभाके सूवर्णमहोत्सव अंकके लिए गजराती में आत्महितके साथ परोपकार साधेगे। मुमुक्षु जन आराधना लिखा था, वह संवत् १९६८ में प्रकाशित हुआ था। रसायनसे उनसे अजरामर बने—यही शुभेच्छा । और 'सयाजी सा'हत्यमाला' पुष्प ३३५ में हमारे संवत् २०२७ पोषवदि ३ गुरु 'ऐतिहासिक लेखसंग्रह में | क्र. १०, ३३१ से ३४७ ( मकर-संक्रान्ति ) में] संवत् २०५६ में प्राच्यविद्यामन्दिर द्वारा महाराजा बड़ी बाड़ी, रावपुरा, सयाजीराव युनिवर्सिटी, बड़ौदासे प्रकाशित है। उसमें मैंने बड़ौदा ( गुजरात ) इस संवेगरंगशाला में से श्रमणी और श्रावक, श्राविका लालचन्द्र भगवान् गांधी स्थानों के लिए द्रव्य-विनियोग वक्तव्य दर्शाया था। साथमें [ निवृत्त 'जनपण्डित' बड़ौदा राज्य ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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