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________________ [१५] महावीर, सिद्धों, गौतमादि गणधरों, आचार्यो, उपाव्यायों और मुनियों को प्रणाम करके सर्वज्ञकी महावाणी को भी नमन किया है । प्रवचन की प्रशंसा करके, निर्यामक गुरुओं और मुनियों को भी नमस्कार किया है । सुगति गमन की मूलपदवी चार स्कन्धरूप यह आराधना जिन्होंने प्राप्त की, उन मुनियों को वन्दन किया और गृहस्थों को अभिनन्दन दिया ( गा० १४ ), मजबूत नाव जैसी यह आराधना भगवती जगत् में जयवंती रहो, जिस पर आरूढ़ होकर भव्य भविजन रौद्र भव-समुद्र को वह श्रुतदेवी जयवती है कि, जिसके प्रसाद से जन भी अपने इच्छित अर्थ निस्तारण में समर्थ कवि होते हैं । जिन के पद - प्रभाव से मैं सकल जन श्लाघनीय पदवीको पाया हूँ, विबुध जनों द्वारा प्रणत उन अपने गुरुओं को मैं प्रणिपात करता हूँ । इस प्रकार समस्त स्तुति करने योग्य शास्त्र विषयक प्रस्तुत स्तुतिरूप गजघटाद्वारा सुभटकी तरह जिसने प्रत्यूह ( विघ्न ) - प्रतिपक्ष विनष्ट किया है, ऐसा मैं स्वयं मन्दमति होने पर भी बड़े गुण- गणसे गुरु ऐसे सुगुरुओं के चरण- प्रसादसे भव्यजनोंके हित के लिए कुछ कहता हूँ । (१६) भयंकर भवाटवी में दुर्लभ मनुष्यत्व, और सुकुलादि पाकर, भावि भद्रपनसे, भयके शेषफ्नसे, अत्यन्त दुर्जय दर्शनमोहनीय के अबलपन से, सुगरुके उपदेशसे अथवा स्वयं कर्मग्रन्थि के भेदसे, भारी पर्यंत नदी से हरण किये जाते लोगोंको नदी तटका प्रालंब (प्रकृष्ट अवलम्बन मिल जाय, अथवा रंजनोंको निधान प्राप्त हो जाय, अथवा विविध व्याधिपीड़ित जनोंको सुवैद्य मिल जाय, अथवा कुएँके भीतर गिरे हुए को समर्थ हस्तावलंब मिल जाय; इसी तरह सविशेष पुण्यप्रकर्षसे पाने योग्य, चिन्तामणि रत्न और कल्पवृक्षको जीतने वाले, निष्कलंक परम (श्रेष्ठ) सर्वज्ञ-धर्म को पाकर, अपने हितकी ही गवेषणा करनी चाहिए। वह हित ऐसा हो कि, जो अहितसे नियमसे ( निश्चयसे) कहीं भी, किससे Jain Education International तरते हैं । मन्दमति भी, और कभी भी बाधित न हो। वैसा अनुपम अत्यन्त एकान्तिक परम हित (सुख) मोक्ष में होता है, और मोक्ष कर्मोंके क्षयसे होता है. और कर्मक्षय, विशुद्ध आराधना आराधित करनेसे होता है । इसलिए हितार्थी जनों को आराधना में सदा यत्न करना चाहिए; क्योंकि, उपायके विरह से उपेय ( प्राप्त करने योग्य साध्य ) प्राप्त नहीं हो सकता । आराधना करनेके मतवालों को उस अर्थ को प्रकट करने वाले शास्त्रों का जान चाहिए। इसलिए 'गृहस्थों और साधुओं दोनों विषयक इस आराधना शास्त्रको मैं तुच्छ बुद्धि वाला होने पर भी कहूँगा । आराधना चाहने वाले वह मन, वचन, काया इस त्रिकरण का को चाहिए कि रोध करे ।' इस आराधना में (१) परिकर्म-विधान (२) परगण - संक्रमण (३) ममत्वव्यच्छेद और (४) समाधिलाभ नामवालेचार स्कन्ध (विभाग) हैं । पहिले (१) परिकर्म-विधान में (१) अर्ह (२) लिङ्ग, (३) शिक्षा. (४) विनय, (५) समाधि (६) मनोऽनुशास्ति, (७) अनियत विहार, (८) राजा (2) परिणाम साधारण gora १० विनियोग स्थानों, (१०) त्याग, ( ११ ) मरण- विभक्ति - १७ प्रकारके मरणों पर विचार, (१२) अधिकृत मरण, (१३) सीति (श्रेणी), (१४) भावना और (१५) संलेखना इस प्रकारके १५ द्वारों को विविध बोधक दृष्टान्तों से स्पष्ट रूप में समझाया है । दूसरे (२) परगण संक्रमण स्कन्ध ( विभाग) में (१) दिशा, (२) क्षामणा, (३) अनुशास्ति, (४) सुस्थित गवे - पणा, (५) उपसंपदा, (६) परीक्षा, (७) प्रतिलेखना, (८) पृच्छा, (६) प्रतीक्षा, (१०) इस प्रकार दस द्वारोंको विविध दृष्टान्तों से स्पष्टरूप में समझाया है । तीसरे (३) ममत्वत्रयुच्छेद स्कन्ध ( विभाग) में (१) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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