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________________ ख र त रग च्छ-सा हि त्य स ची संकलन कर्ता-अगरचंद नाहटा, भँवरलाल नाहटा संपादक-महोपाध्याय विनयसागर, साहित्याचार्य, दर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न, शास्त्रविशारद भगवान महावीर के, महान् और पवित्र शासन में समय-समय पर अनेक गण, कुल, गच्छादि प्रगट हुए। कल्पसूत्र की स्थविरावली में प्राचीन गण एवं कुलों का अच्छा विवरण प्राप्त होता है। आगे चल कर वज्रशाखा व चन्द्रकुल में जो चौरासी गच्छ हुए उनमें खरतर गच्छ का मूर्धन्य स्थान है। लगभग एक हजार वर्ष से इस गच्छ के महान् आचार्यों ने जैन शासन की जो विशिष्ट सेवा की है, वह स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है। मध्यकाल में जो चैत्यवास की विकृति छा गई थी उसका प्रबल परिहार इस गच्छ के महान् ज्योतिर्धरों ने अपने दीर्घकालीन विशिष्ट प्रयास द्वारा करके जैनधर्म की उन्नति में चार चांद लगा दिये । लाखों अजैनों को जैनधर्म का प्रतिबोध देकर उन्हें एक संगठित जाति और गोत्र में प्रतिष्ठित किया, इस महान उपकार और विशिष्ट देन को जैन समाज कभी भुला नहीं सकता। ___ खरतर गच्छ के महान आचार्यों और साधु-साध्वियों ने जैन धर्म के प्रचार का खूब प्रयत्न किया। भारत के कोने-कोने में उन्होंने भगवान् महावीर का सन्देश राजमहलों से लेकर झोंपड़ियों तक प्रसारित किया। उनके उपदेश से प्रभावित होकर श्रावक-श्राविकाओं ने हजारों विशाल जिनालय और लाखों प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवायीं। ताड़पत्र और कागज पर लाखों प्रतियां लिखवाकर अनेक स्थानों में बड़े-बड़े ज्ञान भण्डार स्थापित किये, जिनमें जैन साहित्य ही नहीं, अनेकों जैनेतर ग्रन्थों की भी अन्यत्र अप्राप्य, अज्ञात एवं प्राचीनतम प्रतियाँ भी पायी जाती हैं । इस गच्छ के विद्वान मुनियों ने स्वयं भी हजारों प्रतियाँ लिखकर साहित्य के संरक्षण में बड़ा भारी योग दिया है उधर से कोई भी अच्छा ग्रन्थ उन्हें प्राप्त हो गया तो उसे बड़ी सावधानी से अपने ज्ञानभण्डारों में संभाल के रखा और किसी भी विषय के किसी भी अच्छे ग्रन्थ के मिलते ही स्वयं उसकी प्रतिलिपि करके या करवाके अपने ज्ञानभण्डार को समृद्ध किया। . साहित्य निर्माण में खरतर गच्छ के आचार्यो, साधु-साध्वियों और श्रावकों का भी बहुत बड़ा और विशिष्ट योग रहा है । ग्यारहवीं शती के वर्द्धमानसूरिजी से लेकर आज तक · साहित्य सर्जन की वह अखण्ड धारा निरन्तर प्रवाहित होती रही है। इसके फलस्वरूप हजारों उल्लेखनीय रचनाए प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हि राजस्थानी, सिन्धी आदि भाषाओं में प्रत्येक विषय की प्राप्त हैं। गांव-गांव, नगर-नगर में साधु-साध्वी विहार करते थे, यतिजन रहते थे, अतः उस साहित्य का विखराव इतना अधिक हो गया कि उसका पूरा पता लगाना भी असंभव हो गया है। असुरक्षा, उपेक्षा आदि अनेक कारणों से गत सौ वर्षों में बहुत बड़े परिमाण में वह साहित्य नष्ट एवं इतस्तत: हो गया फिर भी जो कुछ बच गया है, उसकी एक सूची बनाने का प्रयत्न हम गत चालीस वर्षों से निरन्तर करते रहे हैं। भारत के प्रायः सभी प्रदेशों और सैकड़ों गांव-नगरों में जाकर तथा प्रकाशित-अप्रकाशित सूचियों द्वारा जो भी ... जानकारी हमें अब तक मिल सकी है, उसे अपने साहित्य सूची की पुस्तक में बराबर नौंध (नोट) करते रहे हैं। हमने यह सूचो . प्रायः संवतानुक्रम और लेखक के नामानुसार तैयार की थी। वर्षों से उसे सुसंपादित कर प्रकाशित करने का विचार रहा पर अब तक वैसा सुयोग प्राप्त नहीं हो सका । अभी मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के अष्टम शताब्दी स्मारक ग्रन्थ की योजना बनने पर हमारा वह चिरमनोरथ पूर्ण होते देख कर अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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