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________________ स्वर्गीय गणिवर्य बुद्धिमुनिजी [ अगरचन्द नाहटा ] जैन धर्म के अनुसार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही मोक्षमार्ग है । जो व्यक्ति अपने जीवन में इस रत्नत्रयी की जितने परिमाण से आराधना करता है वह उतना ही मोक्ष के समीप पहुंचता है, मानव जीवन का उद्देश्य या चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना ही है । मनुष्य के सिवा कोई भी अन्य प्राणी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । इसलिये मनुष्य जीवन को पाकर जो भी व्यक्ति उपरोक्त रत्नत्रयी की आराधना में लग जाता है उसी का जीवन धन्य है, यद्यपि इस पंचम काल में इस क्षेत्र से सीधे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, फिर भी अनन्तकाल के भव-भ्रमण को बहुत ही सीमित किया जा सकता है । यावत् साधना सही और उच्चस्तर की हो तो भवान्तर ( दूसरे भव में) भी मोक्ष प्राप्त हो सकता है । चाहिये संयमनिष्ठा और निरंतर सम्यक साधना | यहां ऐसे ही एक संयमनिष्ठ मुनि महाराज का परिचय दिया जा रहा है जिन्होंने अपने जीवन में रत्नत्रयी की आराधना बहुत ही अच्छे रूप में की है, कई व्यक्ति ज्ञान तो काफी प्राप्त कर लेते हैं पर ज्ञान का फल विरति है उसे प्राप्त नहीं कर पाते और जब तक ज्ञान के अनुसार क्रिया चारित्र का विकास नहीं किया जाय वहां तक मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता 'ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः । गणिवर्य बुद्धिमुनिजी के जीवन में ज्ञान और चारित्र इन दोनों का अद्भुत सुमेल हो गया था यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है । आपका जन्म जोधपुर प्रदेशान्तर्गत गंगाणी तीर्थ के समीपवर्ती बिलारे गांव में हुआ था। चौधरी (जाट) वंश में जन्म लेकर भी संयोगवश आपने जैन - दीक्षा ग्रहण की। Jain Education International आपके पिता का स्वर्गवास आपके बचपन में ही हो गया था और आपकी माता ने भी अपना अन्तिम समय जान कर इन्हें एक मठाधीश- महंत को सौंप दिया था, वहां रहते समय सुयोगवश पन्यास श्री केसरमुनिजी का सत्समागम आपको मिला और जैन मुनि की दीक्षा लेने की भावना जाग्रत हुई । पन्यासजी के साथ पैदल चलते हुए लूणी जंकशन के पास जब आप आये तो सं० १९६३ में ह वर्ष की छोटी सी आयु में ही आप दीक्षित हो गये आपका जन्म नाम नवल था, अब आपका दीक्षा नाम बुद्धिमुनि रखा गया वास्तव में यह नाम पूर्ण सार्थक हुआ आपने अपनी बुद्धि का विकास करके ज्ञान और चारित्र की अद्भुत आराधना की। थोड़े वर्षों में ही आप अच्छे विद्वान हो गये और अपने गुरुश्री को ज्ञान सेवा में सहयोग देने लगे । तत्कालीन आचार्य जिनयशः सूरिजी और अपने गुरु केसरमुनिजी के साथ सम्मेतशिखरजी की यात्रा करके आप महावीर निर्वाण - भूमि पावापुरी में पधारे आचार्यश्री का चतुर्मास वहीं हुआ और ५३ उपवास करके वे वहीं स्वर्गवासी हो गये, तदनन्तर अनेक स्थानों में विचरते हुए आप गुरुश्री के साथ सूरत पधारे, वहां गुरुश्री अस्वस्थ हो गये और बम्बई जाकर चतुर्मास किया उसी चातुर्मास में कार्तिक शुक्ला ६ को पूज्य केसरमुनिजी का स्वर्गवास हो गया । करीब २० वर्ष तक आपने गुरुश्री की सेवा में रहकर ज्ञानवृद्धि और संयम और तप - जो मुनि जीवन के दो विशिष्ट गुण हैं - में आपने अपना जीवन लगा दिया आभ्यंतर तप के ६ भेदों में वैयावृत्य सेवा में आपकी बड़ी रुचि थी, आपके गुरुश्री के भ्राता पूर्णमुनिजी के शरीर में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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