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________________ उपाध्याय क्षमाकल्याणजी और उनका साधु समुदाय [ लेखक - अगरचन्द नाहटा ] भगवान महावीर के शासन की यह एक विशेषता रही है कि मानव प्रकृत्यनुसार साध्वाचार में जब-जब शिथि लता आयी तो उसके परिहार के लिए कई क्रान्तिकारी महापुरुष प्रकट हुए। क्योंकि भ० महावीर ने जैनमुनियों का आचार बड़ा कठिन और निरवद्य रखा था इसलिए उनकी वाणी का जिन्होंने भी ठीक से स्वाध्याय मनन किया उन्हें जैनधर्म का आदर्श सदा यह प्रेरणा देता रहा कि विशुद्ध साध्वाचार पालन करना ही प्रत्येक साधु-साध्वी का कर्तव्य है । यदि उसमें कहीं दोष लगता है तो उसका परिमार्जन किया जाना भी अत्यावश्यक है । खरतरगच्छ अपनी विशुद्ध साध्वाचार की परम्परा के लिए प्रसिद्ध रहा है। इसे सुविहित विधिमार्ग इस उपनाम से भी उल्लिखित किया जाता रहा है । समय समय पर जब भी गिथिलाचार पनपा तब खरतरगच्छ के आचार्यों और मुनियों ने क्रियोद्वार द्वारा पुनः शुद्ध साध्वाचार प्रतिष्ठित किया । उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भी वाचक अमृतधर्मणि ने संवेग भाव से कतिपय साधूचित नियमों को ग्रहण कर आचार-निष्ठा का भव्य उदाहरण उपस्थित किया। ये जिनभक्तिसूरिजी के शिष्य प्रीतिसागर उपाध्याय के शिष्य थे । सं० १८३८ मिती माघसुदि ५ को आपने परिग्रह का सर्वथा त्याग कर दिया था । इन्हीं के शिष्य उपाध्याय क्षमा कल्याणजी हुए जिनकी परम्परा का साधु समुदाय आज भी सुखसागरजी के संघाड़े के नाम से विद्य मान हैं । पं० नित्यानंदजी विरचित संस्कृत क्षमाकल्याणचरित के अनुसार क्षमाकल्याणजी का जन्म बीकानेर के समो Jain Education International पर्वत केसरदेसर गाँव के ओसवंशीय मालू गोत्र में सं० १८०१ में हुआ था । आपका जन्म नाम खुशालचन्द्र था । नदी सूची के अनुसार सं० १८१५-१६ में श्रीजिनलाभसूरिजी के पास आपने यति-दीक्षा ग्रहण की। आपके धर्म- प्रतिबोधक और गुरु वाचक अमृतधर्मजी थे । विद्यागुरु उपाध्याय राजसोम और उपाध्याय रामविजय ( रूपचन्द्र ) थे । संवत् १८२६ से ४० तक आप वाचक अमृतधर्मजी, श्रीजिनलाभसूरिजी और श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के साथ राजस्थान के अतिरिक्त गुजरात - सौराष्ट्र-कच्छादि में विचरे और तत्रस्थ तीर्थों की यात्रा कर सं० १८४३ में पूर्वदेश की ओर अपने गुरु महाराज के साथ विहार किया । सं० १८४३ का चातुर्मास बालूचर में करके भगवती सूत्रकी वाचना की । पाँचवर्ष तक बंगाल- विहार में विचरण कर आपने कई मंदिर-मूर्तियों पादुकाओं आदि की प्रतिष्ठा की। वहां के श्रावकों की प्रेरणा से हिन्दी-राजस्थानी में कई रचनाएँ भी कीं । सं० १८५० का चातुर्मास बीकानेर करके सं० १८५१ का जेसलमेर किया और वहीं माघ सुदिप को आपके गुरु महाराज का स्वर्गवास हो गया । जेसलमेर में आज भी अमृतधर्मशाला उनकी स्मृति में विद्यमान है । सं० १८५५ श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने आपको वाचक पद दिया और दो तीन वर्ष बाद श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने आपको उपाध्याय पद से विभूषित किया । सं० १८५८-५६ में आप उपाध्याय के रूप में सूरिजी के साथ जेसलमेर थे । सं० १८२६ से लेकर १८७३ तक आप निरन्तर साहित्य निर्माण करते रहे । अजीमंगज, महिमापुर, महाजन टोली, पटना, देवीकोट, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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