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________________ t १५ 1 धादि का प्रयोग न कर उदयगत कर्मों को भोगकर नाश करना ही उनका ध्येय था । ऐसे समय में उनकी ध्यान समाधि और भी उच्चस्तर पर पहुँच जाती । सत्य है। जिसे देहाध्यास नहीं, आत्मा के शास्वत अविनाशोपन का अखण्ड ज्ञान है उसे शरीर की चिन्ता हो भी कैसे सकती है ? तो इस प्रकार की आत्मरमणता और शरीर के प्रति निर्मोहीपन से आप के शरीर को अर्शव्याधि ने जोर मारा और अशक्ति बढ़ती गई। गत पर्युषण पर देह व्याधि का पालन कर श्रोताओं को अपने प्रवचनों का खूब लाभ दिया । २८ कीलो से भी क्रमशः शरीर क्षीण होता गया घटता गया पर सतत आत्मचिन्तन में रहे उन महायोगी ने गत कार्तिक शुक्ल २ की रात्रि में इस नश्वर देह का त्याग कर दिया। इस दादा साहब श्री जिनदतसूरिजी आदि गुरुजनों के प्रति आपकी अनन्य भक्ति थी ओर आपका जीवन भी उन्हीं के पथ-प्रदर्शन में उदयाधीन प्रवृत्त था । दादा साहब ने ही आपको "तू तेरा संभाल" ध्येय मंत्र देकर आत्म साक्षात्कार की प्रेरणा दी थी। वर्तमान जैन समाज अपने आत्म दर्शन मार्ग से हजारों योजन दूर चला गया है और शास्त्र-निर्दिष्ट आत्मसिद्धि से वंछित आत्म-रमणता से दूर केवल बाह्य चकाचौंध में भटका हुआ है । वर्तमान प्रवृत्ति में आपकी भाव दया प्रेरित उरकार बुद्धि आत्मदर्शन की प्रेरणा देती रही। आपने हृदय में गच्छों की तो बात ही क्या पर दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद-भावों को भी मिटा देने की भावना थी वे स्वयं दिगम्बर अध्यात्मिक ग्रंथों को अध्ययन करते और उन्होंने उन ग्रंथों को भाषा पद्यों में गुफित कर अध्यात्मिक जगत् का महान् उपकार किया है । नियमसार, समाधिशतक आदि कृतियां उसी का परिणाम है । श्रीमद् आनंदघन जी की चौबीसी का आपने १७-१८ स्तवनों तक का मननीय विवेचन लिखा व पदों का भी अर्थ संकलन किया था । आपने प्राकृत व भाषा में दादा साहब के स्तोत्र स्तवनादि रचे चेत्यवन्दन चौबीसी अनुभूति की आवाज, संख्याबढ स्तवन व पदों का निर्माण किया । पचास तीस वर्ष पूर्व आपने प्राकृत व्याकरण को भी रचना की थी जिसे गुफा वास की एकाकी भावना ने अलभ्य कर दिया। इसी Jain Education International प्रकार "सरल समाधि" की दोनों कापियाँ जिसमें अपनी प्रसिद्धि की संभावना समझ कर तीव्र वैराग्यवश अप्राप्य कर दिया। गुरुवर्य श्री जिनरत्नपुरि जो व विद्यागुरु उपा ध्याय जो धो मुनिजों की स्तवना में संस्कृत व श्री भाषा में कई पद्य रचे । आपको सभी रचनाएं प्रकाशित करने की भावना होते हुए भी हम आपको आज्ञा न होने से प्रकाशित न कर सके। आपके प्रवचनों का यदि सांगोपांग संग्रह किया जाता तो वह मुमुक्षुओं के लिए बड़ा हो उपकारी कार्य होता । ' वर्तमान युग में श्रीमद् राजचंद्र सर्वोच्च कोटि के धर्मिष्ठ, साधक और आत्मज्ञानी हुए हैं । दादा साहब की उदार प्रेरणावश आपने उनके ग्रन्थों को आत्मसात् कर अधिकाधिक विवेचन अपने प्रवचनों में किया । उनके प्रति आपकी अटूट श्रद्धा भक्ति थी जिससे आपने श्रीमद् के अनुभव पथ को खूब प्रशस्त किया। श्रीमद् राजचंद्र ग्रंथ में से तत्त्वविज्ञान" नाम से उनको चुनी हुई रथनाओं का संग्रह प्रकाशित करवाया। श्रीमद् देवचंद्रजी की रचनाओं का पुनः संपादन प्रकाशन करने के लिए हमें हस्तलिखित प्रतियों के आधार से "श्रीमद् देवचंद्र " ग्रंथ तैयार करने की प्रेरणा दी। इसी प्रकार श्रीमद् आनंदघन जी को कृतियों (बाबोसो स्तवन और पद बहुतरी) के पाठों को भी प्राचीन प्रतियों के आधार से सुसंपादित संस्करण प्रकाशन करने का सुझाव दिया। हमने आपके आदेशानुसार ये दोनों कार्य यथाशक्ति किये हैं और उन्हें शीघ्र ही प्रकाशन किया जायगा। हमारी भावना थी कि ये दोनों ग्रन्थ आपली के निरीक्षण में प्रकाशित हों पर भवितव्यता को ऐसा स्वीकार नहींथा | खरतरगच्छ में और भी कई स्थानो वैरागी अध्यात्म प्रिय साधु साध्वी हुए हैं उनमें से प्रवर्तिनी स्वयंधी जी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । उन्नीसवीं शताब्दी में उ० श्री क्षमा हल्याण जी ने संवेगी मुनियों की परम्परा प्रारम्भ को उनमें श्री सुखसागर जी का समुदाय आज विद्य मान है, बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में यति संप्रदाय में से श्रोमोहनलालजी महाराज और श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी महाराज ने किपोद्वार करके पचासों साधु-साध्वियों को संयमाधन में प्रवृत्त किए उनकी परम्परा भी चल रही है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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