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________________ पूज्य श्रीमद् देवचंद्रजी के साहित्य में से सुधाबिन्दु [आत्मयोग साधक स्वामीजी श्री ऋषभदासजी ] चित्र विचित्र स्वभाववाले, विविध प्रकार के जड़ चेतन अतः प्राणियों को अपने साध्य बिन्दु की सिद्धि के लिये विश्व पदार्थों से परिपूर्ण इस विशाल विश्व का जब हम अवलो- के पदार्थ विज्ञान का प्रबोध प्राप्त करना अनिवार्य है। वह कन करते हैं और इस विश्वतंत्र का व्यवस्थित ढंग से शक्ति मानव में होने के कारण मानव अपनी महानन्द मुक्ति संचालन देखकर इसके अन्तस्तल में रहे प्रयोजन को सूक्ष्म- पद का अधिकारी माना गया है। दृष्टि से समझने के लिये प्रयत्न करते हैं तो सारा तन्त्र यद्यपि मानव जन्म की महत्ता को प्रत्येक दर्शन ने सकल जीवराशि के लिये स्वतन्त्र, स्व-पर निर बाध, सहज प्रधान स्थान दिया है परन्तु मानव जन्म की महत्ता का सुख को सिद्धि के चरम साध्य के उपलक्ष्य में परोपकार की रहस्य जैसा आईत्-दर्शन में प्रतिपादन किया गया है, वैसा प्रबल भूमिका पर निरन्तर श्रमशील हो, ऐसा भास हुए कहीं भी नजर नहीं आता । आर्हत् दर्शन में समस्त चराचर बिना नहीं रहता और इसके समर्थन में पूर्व महर्षियों के कई प्राणियों को तीन कक्षाओं में विभाजित किया गया है। श्लोक मिलते हैं। उदाहरणार्थ कितने ही प्राणी कर्म चेतना के वश हैं, कितने ही प्राणी परोपकाराय फलन्ति बृक्षाः, परोपकाराय वहन्ति नद्यः । कर्मफल चेतना के वश हैं और कितने ही ज्ञान चेतना के परोपकाराय दुहन्ति गाव:, परोपकाराय शतां विभूतयः ॥ वश हैं। तीसरी ज्ञान चेतना का विशेष विकास मानव वास्तव में गगन मंडल में सूर्य-चन्द्र-तारा-ग्रह जन्म में ही दृष्टिगोचर हो रहा है। आईत् दर्शन में ही नक्षत्र- को जगमगाती हुई ज्योति प्राणियों के प्रबोध प्राप्ति आत्मा के स्वभाव और विभाव धर्म का सर्वाङ्गसुन्दर के पथ में प्रोत्साहन देती हुई उनके प्राण-रक्षण के अमृत । प्रतिपादन है और इस उभय धर्म का अनुसन्धान करने के समान अनेक पोषक तत्वों को प्रदान कर रही है। पवन, लिये दो प्रकार की द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दृष्टि का प्रकाश, पानी, अग्नि आदि भी प्राणियों के प्राण-रक्षण में बड़ा सुन्दर वर्णन है। स्वभाव से ही यह अनन्त ज्ञान, सम्पूर्ण सहायता कर रहे हैं और पर्वत, नदी, नाले, बन, दर्शन, चारित्र, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख का स्वामी है उपवन, उद्यान, हरे हरियाले खेत प्राणियों के प्राणों का और अजर, अमूर्त, अगुरुलघु और अव्याबाध गुणों का अस्तित्व अबाधित रखने में बहुत अनुग्रह कर रहे हों, ऐसा निधान है। इसीलिये सतत् सुखाभिलाषी और उसकी दृष्टिगोचर हो रहा है। अगर नैसर्गिक नियंत्रण के पदार्थ प्राप्ति के हेतु पूर्ण प्रयत्नशील है परन्तु विश्वतन्त्र की वस्तुविज्ञान में ऐसी परोपकारपूर्ण प्रक्रिया न होती तो प्राणी स्थिति के विज्ञान का विकास न साधे वहाँ तक यह अपनी क्षण मात्र भी अपना अस्तित्व नहीं टिका सकते क्योंकि प्राणी मात्र सुख चाहते हैं, वह सुख भी सतत् चाहते हैं अज्ञानदशा में सुख के बदले दुख परम्परावद्धक सुखाभास और सम्पूर्ण सुख चाहते हैं। इसलिये प्राणी मात्र का यह के लिये प्रयास करता रहता है और उस भ्रांति में अपने एक सनातन सिद्ध सहज स्वभाव हो, ऐसा ज्ञात होता है। को चौरासी लाख जोवायोनि के नमर-जाल में फंसाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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