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________________ 'ढोला मारूरां दूहा' में पावस ऋतु का वर्णन जिनहर्ष रचित 'बरसातरा दूहा' से कितना साम्य रखता हैढोला मारूरा हा 'बीजुलियां चलावलि ---- आभइ आभई एक । कदी मिले उण साहिया, कर काजल की रेख ॥ जुलियां चलावलि, आभइ आभइ च्यारि । कवरे मिलउंली सज्जणां, लाबी बांह पसारि ॥ जिनहर्ष बीजुलियां सल भल्लियां, आगे-आगे कोड़ि | करे मिले सजणां, कंचुकी कस छोड़ि ॥ बोलियां गली बादला, सिंहरां माथे खात । कदे मिले सजणां, करी उघाड़ी गात ॥ जैन कवियों में महाकवि जिनहर्ष, धर्मर्द्धन, जिन राजसूरि और विनयचन्द के सम-सामयिक थे । इसलिये ये परस्पर प्रभावित प्रतीत होते हैं। १११) मानव समाज के कवि हैं और प्रकृति को मानव के इतस्ततः देखकर ही हर्षित होते हैं। मानव निरपेक्ष प्रकृति का रूप उन्हें आकृष्ट नहीं करता । नागरिक संस्कृति की अपेक्षा कवि को जनपद संस्कृति से विशेष अनुराग है। ग्राम्य वेशभूषा, रहन-सहन और पर्व उत्सवों का वर्णन करने में उसका अभिनिवेश देखते ही बनता है । उसने राबड़ी, बाजरे के डंठल, पके बेर, खीचड़ा, सींगड़ी, आगलगी भेड़, दमामी के ऊंट, चर्मरज्जु, चस, मथनी, तिल निष्पीडन, अर्क, अतुल, कृपछाया, एरण्ड वटवृक्ष और अजागलस्तन को अपने काव्य में अप्रस्तुत विधान के रूप में प्रस्तुत किया है, लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि वह नागरिक संस्कृति से अनभिज्ञ है। जिनह 'ओंकार अपार जगत आधारसबै नर नारि संसार जपे है... धर्मवर्द्धन - ऊँकार उदार अगम्म अपार-संसार में सार पदारथ नामी 1 । महाकवि जिनहर्ष रससिद्ध कत्रि थे । श्रोताओं पर उनको सरस वाणी का जादुई प्रभाव था। श्रृंगार के संयोग और वियोग वर्णन में उन्हें जितनी सफलता मिली है, उतनी ही शान्त वर्णन में कवि का पर दुःख कातर हृदय करुण में जितना श्मा है, वह हास्य से उतना ही दूर है। बीभत्स और भयानक रस वर्णन की अपेक्षा उनका हृदय वीर और रौद्रमें उल्हसित प्रतीत होता है। भक्तिरस में कवि का श्रद्धोपेत मानस निरन्तर निमजित रहने का अभिलाषी है, जबकि वत्सल रस अवतारणा में वह केवल परम्परा का निर्वाह मात्र करता है। अद्भुतरस में उसकी विशिष्ट रुचि है। कवि को प्रकृति से हादिक लगाव नहीं है। वह उसके उद्दीपक रूप से जितना प्रभावित और उत्साहित होता है उतना उसके आलम्बन रूपसे नहीं । वस्तुतः जिनहर्ष - Jain Education International यह निर्विवाद तथ्य है कि अभिव्यञ्चना साहित्य का महत्वपूर्ण अङ्ग है। उत्तम से उत्तम अनुभूति भो अभि व्यक्ति के बिना मूक रह जाती है । वस्तुतः इन दोनों में समवाय सम्बन्ध है एक के अभाव में दूसरी का अस्तित्व सम्भव नहीं है । अनुभूति यदि आत्मा है तो अभिव्यक्ति निश्चय ही शरीर है । एक के अनस्तित्व में दूसरी का अस्तित्व निष्प्रयोजन है। कुशल कवि जिनहर्ष ने अभिव्यक्ति की रमणीयता एवं प्रभाव क्षमता की सिद्धि के लिये अनेक साधनों का उपयोग किया है। इस तथ्य को हम एक दो उदाहरण प्रस्तुत कर स्पष्ट करना चाहते हैं। जिनहर्ष ने मानव जीवन को उसकी समग्रता में ग्रहण किया है; इस लिये उनके काव्य में विभिन्न प्रकार के चित्र उपलब्ध हैं । स्थिर चित्र : वृद्ध ज्योतिषी का एक शब्दचित्र द्रष्टव्य है :'गोषे बैठ्यो सेठ क्रोधे भर्यो रे, दीठो ब्राह्मण एक । नाम नारायण पोथी काषमें रे, विद्या भण्यो अनेक ॥ पीताम्बरनो पहिरण धावतीयोरे, लटपट बींटी पाग । अबल पछेवड़ी ऊपर उदगीरे, कनक जनोई भाग ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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