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________________ । १०८ 1 बनाने का अमोध अस्त्र रखते हैं। व्याधि मन्दिर शरीर को किया। उनकी प्रवृत्ति खण्डनात्मक अधिक रही और मण्डजलोदर और कुष्ट से संरक्षण के लिए वे पूर्व सावचेती' के नात्मक कम । रूपमें यूकानिगरण और करोलिया भक्षण का क्रमशः निषेध महाकवि जिनहर्ष ने भी प्रदर्शन निमित्त किये जाने करते हैं । यात्रा, शकुन, लोक, परलोक, विधि विधान-तप, वाले बाह्याचरण का विरोध किया है। उन्होंने जैन और साधना-संयम-इस प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वह जनेतर दोनों को फटकारा है लेकिन उनकी प्रवृत्ति खंडनहमारे साथ है;- उनका अनुभव हमें सुदूर तक मार्ग-बोध प्रधान नहीं है। उसमें व्यंग्य का असह्य प्रहार नहीं है। कराता है। वे कहते हैं लेकिन माधुर्य के साथ । इस प्रसंग में यह बता निर्गुणोपासना में ब्रह्म निराकार है। वह अव्यक्त है। देना अनुचित नहीं होगा कि जिनहर्ष ने मूर्तिपूजा का खंडन गुण-रहित होने के कारण निर्गुण है। घर-घर में वह व्याप्त नहीं किया है। हां, मंडन अवश्य किया है। उनकी रचना है। जिनहर्ष का 'सिद्ध' कबीर के ब्रह्म से मिलता है। वह 'जिन प्रतिमा हुँडो रास' का उद्देश्य एक मात्र मूर्तिपूजा भी वीतराग, गुण रहित और निराकृति है। कबीर के ब्रह्म का समर्थन ही है । मूर्तिपूजा के इस बिन्दु पर कवि जिनहर्ष और जिनहर्ष के सिद्ध में इतना ही अन्तर समझना चाहिये निर्गुणियों से मेल नहीं खाते । निर्गुणियों ने तीर्थ और कि प्रथम की व्याप्ति सर्वत्र है जबकि द्वितीय को नहीं है। ब्राह्मणों का घोर विरोध किया है। जिनहर्ष में यह बात वह चैतन्यावस्था में आकाश में स्थान विशेष पर रहता है; नहीं है। उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्राएं की थीं और जबकि निर्गुणियों का ब्रह्म अगजग में इस प्रकार घला मिला 'तोर्थ चैत्य परिपाटी' की समर्थ रचना से पुण्य स्थल यात्रा है; जिस प्रकार दही में घी। के महत्त्व को अभिव्यंजित किया था। हिंसा-प्रधान धर्मों का आत्मतत्त्व विश्वव्यापी ब्रह्म का अंश है। का । ना का घोर विरोध दोनों ने ही किया है। जिनहर्ष हिंसा जबकि जिनहर्प की आत्मा कर्मफल क्षयोपरान्त स्वयं ब्रह्म परक धर्म को धर्म और शस्त्रपाणि देवताओं को देवता बन जाती है। वह किसी ब्रह्म का अंश नहीं है। इस स्वीकारने को तत्पर नहीं हैं । निर्गुण सम्प्रदाय में व्रत प्रकार जिनहर्ष के समस्त सिद्ध एक-एक ब्रह्म हैं। वे अनेक उपवास पर अनास्था व्यक्त की गयी है । जिनहर्ष ने ऐसा हैं; निर्गुणियों का एक है । नहीं किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जिनहर्ष और ____ कवीरदास और जिनहर्षने गरु की महत्ता समान रूपसे निर्गुण संत वैचारिक मग में कुछ दूरी तक तो साथ-साथ स्वीकार की है। दोनों में ही गुरुकृपा के लिए आकांक्षा चलते हैं; पर फिर छिटक जाते हैं। है। दोनों ही गुरु के प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हैं। सगुण भक्ति में परमात्मा के अंशभूत अवतार की कबीर ने गुरु को गोविन्द से भी बड़ा कहा है लेकिन जिन- भक्ति की जाती है। यह अवतरण अधर्म के नाश और हर्ष ऐसा नहीं कह सके हैं । वे गुरु को ईश्वर की-सी महत्ता धर्म की स्थापना के निमित्त होता है। अवतारी प्रभु भक्तों देते हैं। उनके काव्य में पंचपरमेष्ठियों को पंचगुरु की का दुःख भंजन करते हैं। अपनी लीला से संसार को संज्ञा दी गयी है। सन्मार्ग दिखाते हैं । वे शोल, शक्ति और सौन्दर्य के निधान निर्गुणियों ने धर्म के बाह्य आचार का खंडन किया होते हैं । श्रीराम और श्रीकृष्ण ऐसे ही ईश्वर रूप थे । है। उनके आलोचना प्रहार से मंदिर मस्जिद तक नहीं सूरदास और तुलसीदास के आराध्य वे ही थे। उनकी बच सके। कर्मकांड, जन्मना जाति का उन्होंने घोर विरोध भक्ति सगण भक्ति की कोटि में आती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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