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________________ महाकवि जिनहर्ष : मूल्याङ्कन और सन्देश [डॉ० ईश्वरानन्द शर्मा एम० ए० पी-एच० डी०] अठारहवीं शती के खरतरगच्छीय जैन साधु महाकवि आदि नाम उन्हें विशेष प्रिय थे। निर्मल नीरगंगा, श्याम जिनहर्ष वागीश्वरी के वरदपुत्र थे। वे जन्मजात काव्य- जलराशि जमुना, परम पवित्र गोदावरी, अन्त:सलिला प्रतिभा, नवनवोन्मेषशालिनी कल्पना और विचारसार- सरस्वती, रजताभ रेवा, सवेगा सरयू, नद्प सिन्धु आदि संदोह के धनी थे । उनकी श्रमशील कुशल लेखनी सरस नदियों, हिमाचल, विन्ध्याचल, गिरिनार, वैताढ्य, रेवतक, काव्य प्रणयन में षष्ठि ६० वर्ष पर्यन्त निरन्तर संलग्न शत्रुजय प्रभृति पर्वतों, विविध जन्तुरकुल वनों, पुष्पराजि रही। उस सुदीर्घ अवधि में उन्होंने पाँच महाकाव्यों, शोभित उपवनों, शतदल विभूषित सरोवरों के वर्णन में उन्नीस एकार्थ काव्यों एवं लगभग पैंतालीस खण्डकाव्यों एवं कवि का देशप्रेम अभिव्यक्त हुआ है। उनके काव्य में शतश: मुक्तकों से मा भारती के भंडार को संभरित किया। टहकती कोकिल, गुंजनरत मधुप, धनगर्जित वनराज, चतुःशती रचनाओं के प्रणेता वाचक एवं गायक जिनहर्ष मदझरित गजराज, चपल विलोचन हरिण, पयस्वती धेनु का सरस रास कथाकारों में भी शीर्षस्थ स्थान रखते हैं। भरिशः वर्णन-चित्रण मिलता है । जैनतीर्थों की सुषमा, गीतकारों, भक्तिपदप्रणेताओं और लोकसाहित्य सर्जकों में प्राचीन भारतीय नगरियों का वैभव और अभ्रकष देवउनका वैशिष्टय निर्विवाद है। भावों की अनुपम अजस्र मन्दिरों का सौन्दर्यवर्णन-उनकी वाणी को प्रबल वेगवती अभिव्यक्ति, भाषा को प्राणवन्त अभिवा जना, जीवन की बनाता रहा है। भारतीय राजा, प्रजा, शासन-व्यवस्था समग्रता का व्यापक आयाम, मर्मस्थलों का संस्पर्श, व्यापक का मनोरम काव्यमय चित्रण कर उन्होंने अपने देशप्रेम वदुष्य और कवि-हृदय की सहृदयता आदि विशिष्ट गुण का प्रकटन ही किया है। कवि ने भारत भूमि की ईषद् उन्हें कलाकोविद रसिक पाठक समुदाय का कलकंठहार वर्तुल आकृति को चढ़ी सींगढ़ी के सदृश बताकर मौलिक बना देते हैं। वे खरतरगच्छीय क्षेमकीर्ति शाखा में दीक्षित अप्रस्तुत का पुरःस्थापन ही नहीं किया; अपितु दक्षिणामुनि थे; किन्तु उनका भावप्रवण मानस किसी भी प्रकार वर्त की भौगोलिक आकृति का स्वरूप साम्य भो व्यंजित के पूर्वाग्रह, दुराग्रह और धर्मासहिष्णुता से सर्वथा मुक्त किया है (चन्दनमल यागिरि चौपई पृष्ठ ४) । कवि की स्वदेश था। जातिभेद, वर्गभेद और सीमित साम्प्रदायिक दृष्टि- भक्ति का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि वे कोण से वे ऊपर उठ चुके थे। राग, द्वेष, ईर्ष्या, गच्छ- आर्यदेश में जन्मको प्रबल पुण्यका कारण मानते हैं और मोह, जैसे दुर्गुण उनके उत्तुंग शिखर के समान व्यक्तित्व के अपनी अचल आस्था व्यक्त करते हैं कि भारत में उत्पन्न सम्मुख बौने से प्रतीत होते थे। हुए बिना पामर प्राणीको ऐहिक सुख और पारलौकिक शान्ति ___ जन्मना के राजस्थानी थे; लेकिन उनके देशप्रेमी कविने प्राप्त ही नहीं हो सकते (शत्रुजय रास पृष्ठ १७३) । भारतभूमि के विविध स्वरूपों को अपनी सरस्वती में कविका वैदुष्य व्यापक और गहन था। उन्हें राजरूपायित किया है। आर्यावर्त, भारतवर्ष, भरतक्षेत्र स्थानी, गुजराती और संस्कृत भाषा का विशिष्ट ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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