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________________ अङ्ग आगमों के विषयवस्तु-सम्बन्धी उल्लेखों का तुलनात्मक विवेचन डा. सुदर्शन लाल जैन भगवान महावीर ने अपनी दिव्यवाणी द्वारा जिस वस्तु-स्वरूप का प्रतिपादन किया, उसे अत्यन्त निर्मल अन्तःकरण वाले तथा बुद्धिवैभव के धनी गणधरों ने आचाराङ्ग आदि द्वादश अङ्गग्रन्थों के रूप में ग्रथित करके अपने पश्चाद्वर्ती आचार्यों को श्रुत-परम्परा से प्रदान किया।' श्रुत की इस अलिखित परम्परा का स्मृति-लोप होने से क्रमशः ह्रास होता गया। __ श्वेताम्बर-मान्यतानुसार स्मृति-परम्परा से प्राप्त ये अङ्ग ग्रन्थ देवद्धिगणि क्षमाश्रमण की वलभीवाचना ( वीर नि० सं ९८०) के समय लिपिबद्ध किए गए। दृष्टिवाद नामक १२वाँ अंग-ग्रन्थ उस समय किसी को याद नहीं था, अतः वह लिपिबद्ध न किया जा सका। इसके पूर्व भी आचार्य स्थूलभद्र द्वारा पाटलिपुत्र (वीर नि० सं० २१९ ) में तथा आयं स्कन्दिल द्वारा माथुरी वाचना (वीर नि० ८वीं शताब्दी ) में भी इन ११ अङ्ग ग्रन्थों का संकलन किया गया था परन्तु उस समय उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया था । दिगम्बर-परम्परा इन वाचनाओं को प्रामाणिक नहीं मानती है। उनके अनुसार वीर नि० सं० ६८३ तक श्रुत-परम्परा चली, जो क्रमशः क्षीण होती गई। अङ्ग-ग्रन्थों के लिपिबद्ध करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया, फलतः सभी अङ्ग ग्रन्थ लुप्त हो गए। इतना विशेष है कि वे दृष्टिवाद नामक १२वें अङ्गान्तर्गत पूर्वो के अंशांश के ज्ञाताओं द्वारा ( वीर नि० ७वीं शताब्दी में ) रचित षट्खण्डागम और कषायपाहुड को तथा वीर निर्वाण की १४वीं शती में रचित इनकी धवला और जयधवला टीकाओं को आगम के रूप में मानते हैं ।२ १. भगवान् महावीर के ११ गणधर थे जिन्होंने उनके अर्थरूप उपदेशों को १२ अंग ग्रन्थों के रूप में ग्रथित किया था। २. आचार्य धरसेन (ई० १-२ शताब्दी, वीर नि० ७वीं शताब्दी ) के शिष्य पुष्पदन्त और भूत बलि ने षटखण्डागम की रचना की। षटखण्डागम के प्रारम्भ के १७७ सत्र आचार्य पष्पदन्त ने और शेष आचार्य भूतबलि ने लिखे । इस ग्रन्थ का आधार द्वितीय अग्रायणी पूर्व के चयनलब्धि नामक अधिकार का चतुर्थ पाहुड ‘कर्मप्रकृति' है। कषायपाहुड की रचना धरसेनाचार्य के समकालीन गुणधराचार्य ने ज्ञानप्रवाद नामक ५वें पूर्व की १०वें वस्तु के तीसरे 'पेज्जदोसपाहुड' के आधार पर की। इन दोनों पर क्रमशः 'धवला' और 'जयधवला' नामक टीकाएँ वीरसेनाचार्य ने लिखी हैं। चार विभक्तियों के बाद 'जयधवला' टीका की पूर्णता वीरसेन के शिष्य जिनसेन ने ( शक सं० ७५९) की है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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