SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के. आर. चन्द्र ( कल्पसूत्र ) इमोसे (२) आवि होत्था (३,३१) ( आचारोग ) इमाए (७३४) यावि होत्था (७३४, ७३५, ७३७, ७४४ ) ( कल्पसूत्र में भी ' यावि होत्था' का प्रयोग है २९,९४,) भइणी (७४४) भगिणी (१०७) २ (क) आचारांग में उपलब्ध ऐसे प्रसंग जो कल्पसूत्र के महावीर चरित्र में मिलते ही नहीं हैं (१) पंच धात्रियों द्वारा संवर्धन करना । ( ७४१) (२) प्रव्रज्या धारण करने के पहले आसक्ति रहित एवं संयमपूर्वक (अप्पुस्सुयाई" 'चाए विहरति ) पंचेन्द्रिय भोगों का सेवन किया । (७४२) (३) भगवान् के माता-पिता पार्खापत्यी थे और वे महाविदेह में सिद्ध होंगे । (७४५) (४) एक संवत्सर तक दान दिया और अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय वाले हुए । ( ७४६) कल्पसूत्र (१११) के अनुसार एक वर्ष की अवधि तक दान देने का उल्लेख नहीं है और अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय वाले होने का भी उल्लेख नहीं है । उसमें तो ऐसा कहा गया है कि भगवान् ने अपने ज्ञान एवं दर्शन से जब जाना कि निष्क्रमण काल आ गया है तब दीक्षा ले ली । (५) दीक्षा के अवसर पर वैश्रमण देव द्वारा भगवान् द्वारा त्यक्त आभरण- अलंकारों को ग्रहण करना एवं शक्रेन्द्र द्वारा लोच किये हुए केशों को क्षीरोद सागर ले जाना । ( ७६६) (६) चारित्र धारण करते ही मन:पर्यय ज्ञान का होना । ( ७६९) (७) मन:पर्ययज्ञान होने के बाद ऐसा पहले से ही अभिग्रह धारण करना कि बारह वर्ष तक देव मनुष्य तिर्यक् कृत उपसर्गों को सम्यक् पूर्वक सहन करूँगा । ( ७६९) (८) दीक्षा के दिन शाम को कर्मारग्राम विहार करना (७७०) जो कि यह पाठ सभी प्रतों में नहीं मिलता है । (९) केवलज्ञान होने पर भगवान् ने प्रथम देवताओं को और बाद में मनुष्यों को धर्मोपदेश दिया । ( ७७५) Jain Education International इतना तो स्पष्ट है कि ये प्रसंग कल्पसूत्र की रचना के बाद आचारांग के इस महावीर चरित्र आये हैं अन्यथा उनका उल्लेख कल्पसूत्र में भी हुआ होता । इन सब अतिरिक्त प्रसंगों से महान व्यक्ति की महत्ता का संवर्धन किया गया है जो सभी महान व्यक्तियों के साथ होता है । इन बातों से कुल का वैभव बढ़ाया गया और उसका एक पूर्वतीर्थंकर के साथ पहले से ही सम्बन्ध स्थापित किया गया, त्याग और दान की महिमा बढ़ायी गयी, बचपन से ही वैराग्य की भावना बतायी गयी, संकल्प एवं सहनशक्ति को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया, दिव्य तत्त्वों का समावेश किया गया एवं चतुर्थ ज्ञान की कमी की पूर्ति की गयी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy