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________________ नाट्यदर्पण पर अभिनवभारती का प्रभाव १३५ प्रतिपद्यते तदा तज्जनितो देहविकारविशेषो हेला । पूर्वोक्त भाग-३ पृ० १५७. १०७. एते च त्रयोऽङ्गजाः परस्परसमुत्थिता .."अप्येते परस्परसमत्थिता भवन्ति । तथा हि अपि भवन्ति । तथा हि कुमारीशरीरे कुमारीशरीरेप्रौढ़तमकुमार्यन्तरगतहेलावलोकने । प्रौढतम कुमारगतभाव-हाव-हेला-दर्शन- पूर्वोक्त पृ० १५५. श्रवणाभ्यां भावादयोऽनुरूपा विरूपाश्च भवन्ति । पृ०. १८२ १०८. रागः प्रियतमं प्रत्येव बहुमानः । मदो वचनेऽन्यथावक्तव्येऽन्यथाभाषणम्, हस्तेनादातव्ये, मद्यकृतश्चित्तोल्लासः । हर्षः सौभाग्यगर्वः। पादेनादानम्, रसनायाः कण्ठे न्यासः इत्यादि । अन्यथा वक्तव्येऽन्यथा वचनम्, हस्तेनादा- मद्येन कृतो रागः प्रियतमं प्रत्येव बहमानो हर्षः। तव्ये पादेनादानम्, कटीयोग्यस्य कण्ठे सौभाग्यगर्वो यथा । पूर्वोक्त पृ० १६०. निवेशन-मित्यादिकः"" | पृ० १८३ १०९. प्रियतमप्रोत्यतिशयेन । पृ० १८३ प्रियतमगतैः प्रीत्या तं प्रति बहुमानातिशयेन" । पूर्वोक्त पृ० १५९. ११०. रूपलावण्यादीनां च पुरुषेणोपभुज्यमानानां तान्येव रूपादीनि पुरुषेणोपभुज्यमानानि छायान्तरं यदौज्ज्वल्यं छाया विशेषः" । पृ० १८४ श्रयन्ति । पूर्वोक्त पृ० १६२ । इसके अतिक्ति पताकास्थानक, कार्यावस्था और अर्थप्रकृतियों की चेतन एवं अचेतन रूप में की गयी व्याख्या तथा अन्य विविध स्थल भी अभिनवभारती से वैचारिक दृष्टि से प्रभावित तथा अनुप्राणित प्रतीत होते हैं। यह सम्भावना भी सत्य प्रतीत होती है कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र द्वारा कथित 'नाट्यदर्पण-विवृत्ति' नाम भी अविनवगुप्त के 'नाट्यवेद-विवृत्ति' से प्रेरित रहा होगा। इन समस्त तथ्यों को पृष्ठभूमि में भी यह कथन तो अनुचित ही होगा कि नाट्यदर्पण में अभिनवभारतो का अन्धानुकरण किया गया है। वस्तुतः रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने अवसर के अनुरूप अभिनवगुप्त के मन्तव्य की आलोचना तथा उनमें संशोधन एवं परिवर्धन भी किया है, परन्तु प्रस्तुत शोध-पत्र की सीमाओं को दृष्टिगत रखते हुए हम यहाँ नाट्यदर्पण के एतत्सम्बद्ध स्थलों का उल्लेख उचित नहीं समझते हैं। नाट्यदर्पण की विवृत्ति में २ स्थल ऐसे भी प्राप्त होते हैं जिन पर नाट्यशास्त्र और अभिनव भारती का संयुक्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यहीं उनका प्रदर्शन कर देना तो अनङ्ग-कीर्तन ज्ञात नहीं होता है१. भावानां साध्यफलोचितानां रतिहर्षोत्स- एतत्साध्यफलोचितभावलक्षणम् । ना० शा० वादीनां याचनं प्रार्थना । पृ० ७४ भाग-३ । पृ० ५० । रतिहर्षोत्सवानां तु प्रार्थना प्रार्थनाभवेत् । ८६।१९ ना० शा०. २. चौर-नपारि-नायकादिभ्यो भयमुद्वेगः। अरिशब्दान्नायकादि । अभि० भा० (ना० शा० पूर्वोक्त पृ० ७६. भाग -३) पृ० ५१; भय नृपारिदस्यूत्थमुवेगः परिकीर्तितः। ८८।१९ ना० शा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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