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________________ नाट्यदर्पण पर अभिनवभारती का प्रभाव १२३ नाट्यदर्पण अभिनवभारती २६. 'आङमर्यादायाम्' तेन मुखसन्धि सम्प्राप्य मुखसन्धेनिवर्तते यतः आङ्मर्यादायाम् । ना० शा० निवर्तते । पृ० १३६ भाग-३ पृ० ९३ २७. प्रसादप्रयोजना प्रासादिकी । पृ० १७३ प्रसादयोजनः। प्रासादिकी विधात् । पूर्वोक्त भाग-४ पृ० ३६ २८. विशेषेण दूषयन्ति विनाशयन्ति विस्मा- दूषयतोति विदूषकः""दूषयन्ति विस्मारयन्ति । रयन्तीति विदूषकाः । पृ० १७८ पूर्वोक्त भाग-३ पृ० २५१-२५२ रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने 'नाट्यदर्पण' में 'वेणीसंहार' की आलोचना करते हुए भानुमती के साथ दुर्योधन के रत्यभिलाष रूप विलास को तत्कालीन परिवेश में असङ्गत होने के कारण अनुचित कहा है।' इसी रूप में 'वेणीसंहार' की यह आलोचना आचार्य अभिनवगुप्त द्वारा भी की गयी है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र के अनुसार 'पुष्पदूषितक' में अशोकदत्त के कथन से नन्दयन्ती के चरित्र के सम्बन्ध में प्रदर्शित व्यलीक सम्भावना निर्वहण सन्धि पर्यन्त उपयोगी होने के कारण दोषपूर्ण नहीं है। निर्वासन के पश्चात् उस जैसी उत्तम प्रकृति की नायिका का अधम प्रकृति वाले शबर सेनापति के घर में निवास अवश्य ही दोषपूर्ण एवं अनुचित है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर 'अभिनवभारती' में भी 'पुष्पदूषितक' की आलोचना एवं समर्थन किया गया है। नाट्यदर्पण की विवृत्ति पर भी अभिनवभारती का अत्यधिक प्रभाव है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने स्वरचित विवृत्ति में विपुल मात्रा में अभिनव भारतीय के अंशों का समाहार किया है । कहीं उसके भावों, कहीं शब्दों, कहीं वाक्यों और कहीं-कहीं तो सम्पूर्ण अनुच्छेद को ही यथावत् अथवा यत्किश्चित् परिवर्तन सहित नाट्यदर्पण में ग्रहण कर लिया गया है। नाट्यदर्पण के अभिनवभारती से प्रभावित अंशों को हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-- नाट्यदर्पण अभिनवभारती १. यद्यपि समवकारे शृङ्गारत्वमस्ति, तथापि नन्वेवं शृङ्गारयोगे काव्ये कैशिकीहीनता ।"न न तत्र कैशिकी। न खलु काममात्र कामसद्भावमात्रादेव कैशिकी सम्भवः, रौद्र शृङ्गारः, किन्तु विलासोत्कर्षः, न चासौ प्रकृतीनां तद्भावात् । विलासप्रधानं यद्पं सा रोद्रप्रकृतीनां नेतृणाम् । पृ० २४ कैशिकी' । ना० शा० भाग-२, पृ० ४४०-४४१. २. इह ख्यातत्वं त्रिधा नाम्ना चेष्टितेन देशेन ""इह त्रिविधया प्रसिद्धया प्रसिद्धत्वं भवति, च । पृ० २४ __ अमुक एवंकारी अमुत्रदेश इति । पूर्वोक्त पृ० ४११ ३. नायिका तु दिव्याऽपि भवति यथोर्वशी, नायिका तु दिव्याप्यविरोधिनी यथोर्वशीनायकप्रधाने मर्त्यचरिते तच्चरितान्तर्भावात् । चरितेनैव तद्वृत्तस्याक्षेपात् । पूर्वोक्त पृ० ४१२ पृ० २५ १. ना० द० पृ० ६२ । २. अभि० भा० (ना० शा० भाग-३) पृ० ४२ । ३. विवृत्ति ना० द. पृ० १०३ । ४. अभि० भा० (ना० शा० भाग-२) पृ० ४३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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